अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

जीएसटी का डंडा और चौधरी साहब का मौन
किताब कहती है हजार का फाइन, अफसर वसूलते हैं लाख। व्यापारी की दुकान पर धारा 71 की आंधी ऐसे टूटती है मानो दुश्मन के ठिकाने पर छापा पड़ा हो। मोबाइल छीनो, कैमरा बंद करवाओ, छोटी गलती पकड़ो और मोटी वसूली कर लो। व्यापारी कारोबार कम, नोटिसों का हिसाब ज़्यादा लिखता है। गाड़ियों को सड़क पर रोकना, गोदामों में धावा बोलना और व्यापारियों को धमका-धमका कर जुर्माना उगलवाना। यही है नया इंस्पेक्टर राज। कभी कहा गया था। जीएसटी वन नेशन, वन टैक्स है। पर हकीकत में यह वन टेक्स, मेनी ट्रैप्स साबित हो रहा है। और यह सब किसके राज में? चौधरी साहब गर्व से कहते हैं योजनाओं के लिए पैसा चाहिए। बिल्कुल चाहिए साहब, पर सवाल यह है कि खून निचोड़कर? जब अफसर व्यापारी की सांसें रोकें और मंत्रीजी सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाषण पेलें, तो इसे शासन नहीं, शोषण कहते हैं। सच्चाई यह है कि व्यापारी अब ग्राहक से कम, टैक्स अफसर से ज़्यादा डरता है। राज्य की सीमाएं व्यापार रोकने की चौकियां बन गई हैं और अफसरों के लिए हर व्यापारी चलता-फिरता एटीएम। चौधरी साहब! व्यापारियों की चीख अब सिर्फ चैंबर या दिल्ली के दरबार तक नहीं, गली-गली सुनाई दे रही है। जीएसटी अब टैक्स नहीं, आर्थिक लाठीचार्ज बन चुका है। सवाल यह है आप इसे रोकेंगे या बस भाषणों से ही खजाना भरने का जुगाड़ करेंगे?

नो हेलमेट, नो पेट्रोल और सड़कें?
सरकार कह रही है अब से नो हेलमेट, नो पेट्रोल! हेलमेट पहनिए, सुरक्षा पाइए। वाह! नारा गूंजा, अभियान चला, फोटो खिंचे और वाहवाही बटोरी गई। पर सवाल यह है कि हेलमेट तो हम पहन लेंगे, पर उन सड़कों का क्या जिन पर चलना अपने आप में दुर्घटना को न्योता देना है? सड़कें कहीं गड्ढों में समाई हुई हैं, कहीं धूल-धक्कड़ और बजरी का खेल चल रहा है। यह वही सड़कें हैं जिन पर कागजों में करोड़ों खर्च हो चुके हैं। फाइलों में हाईवे चमक रहे हैं, हकीकत में गड्ढे ही गड्ढे। जनता पूछे भी तो जवाब आता है हेलमेट पहन लो भाई, चोट नहीं लगेगी। अब जरा सोचिए सिर फुटे तो हेलमेट। पैर टूटे तो लेग गार्ड। जान जाए तो जीवन बीमा। यानी हर समाधान जनता की जेब से, और हर जिम्मेदारी सरकार की फाइलों में! असली सवाल सड़कें दुरुस्त करने का नहीं, जिम्मेदारी टालने का है। सरकार को लगता है कि अभियान से तस्वीरें चमक जाएंगी और हकीकत को गड्ढों में दफना देंगे। पर हकीकत चीख रही है नो रोड, नो सेफ्टी! जनता समझ रही है कि यह नो हेलमेट, नो पेट्रोल नहीं बल्कि नो शर्म, नो जवाबदेही का खेल है।

59% असंतुष्ट और PR की जीत!
इंडिया टुडे सी वोटर का सर्वे आया है। साहेब इतने लोकप्रिय बताए गए कि योगी आदित्यनाथ और देवेंद्र फडणवीस तक को पीछे छोड़ दिया। वाह! अब इस चमत्कार पर ताली बजाएँ या हंसी? क्योंकि जनता तो कह रही है 59% असंतुष्ट हैं! यानी आधे से ज्यादा लोग नाराज़। और जो समर्थन मिला है, वह भी 45% से नीचे। राजनीति की भाषा में इसे third class पासिंग कहते हैं। अब सवाल यह है कि यह सर्वे किसके लिए था? जनता को समझाने के लिए, या फिर केंद्रीय नेतृत्व को यह बताने के लिए कि देखिए साहेब, हम तो सबसे आगे हैं? लेकिन दिल्ली भी अब मूर्ख नहीं है। दो अहम विभाग साहेब के पास से खिसकाकर किसी और की झोली में डाल दिए गए। मतलब न सिर्फ जनता, बल्कि नेतृत्व ने भी नब्ज पकड़ ली है। तो फिर यह अचानक PR का तामझाम क्यों? विदेश दौरे से ठीक पहले लोकप्रियता का रिपोर्ट कार्ड क्यों जरूरी हो गया?क्या यह जनता को दिखाने के लिए है, या खुद को ढाँढस बंधाने के लिए कि सब कुछ ठीक है? असलियत यह है कि गली-गली नाराज़गी है, सड़क पर गड्ढे हैं, अस्पतालों में दवा नहीं और किसानों की कर्ज़ तंग है। लेकिन इन सबसे ऊपर ब्रांडिंग चमकदार होनी चाहिए। फोटोशूट, अख़बारों के पर्चे और सर्वे के आँकड़े! पर एक सच्चाई यह भी है PR से तस्वीरें सुंदर हो सकती हैं, लेकिन वोट नहीं बदलते। जनता अब गूगल नहीं करती, वह खुद भुगतती है। और उसकी रिपोर्ट, किसी भी सी वोटर सर्वे से ज्यादा भारी पड़ती है। तो साहेब, तीसरी श्रेणी की इस मार्कशीट को पहले ठीक कर लीजिए। वरना जनता अगली बार फेल की मोहर लगाने में देर नहीं करेगी।

कैदी, सदन और शर्म
प्रदेश की राजनीति और प्रशासन अब नए किस्से लिख रहा है। पहले तो कैदी जेल में रहते थे और अफसर-नेता उन्हें सुधारने की बातें करते थे। पर अब तो हाल यह है कि कैदियों को बाकायदा बाहर लाकर ईट-गारा उठवाया जा रहा है। जेल को लगता है जैसे ठेकेदार मिल गया हो सजा काटो और मजूरी करो। पर मजे की बात यह कि कैदी में से एक कैदी वहीं से फुर्र्र हो गया। अब पूरा तंत्र कैदी ढूँढ रहा है।अफसर से लेकर मंत्री तक सब अपने-अपने दफ्तरों में माथा पोंछ रहे हैं। और प्रदेश के गृहमंत्री साहब, जिनके नाम के साथ शर्म जुड़ा है, वो तो इंस्टाग्राम पर डींगें हांकने में मस्त हैं। जेल विभाग की हालत तो और मजेदार है। कैदी संभल नहीं रहे और इन्हें पूरे प्रदेश का लॉ-एंड-ऑर्डर संभालना है। जेल के बड़े साहब, जो डीजीपी की कुर्सी की तरफ सपने बुन रहे हैं, उनसे पूछिए भइया, पहले जेल तो चला लो, फिर राज्य की कानून व्यवस्था का सपना देखना। अब जनता सवाल पूछ रही है क्या कैदियों को जेल से बाहर लाने की अनुमति अदालत ने दी थी? जब कैदी भाग गया तो जिम्मेदारी किसकी? जो सदन बन रहा है, उसका खर्च कौन उठा रहा है? कौन सा विभाग यह बिल चुका रहा है? यह तो प्रदेश की राजनीति में पहली बार हुआ कि मंत्री जी ने अपने विधानसभा के लिए अलग से सदन बनवाने का ठेका लिया और उसमें भी जेल के कैदी लगा दिए। यह लोकतंत्र है या ठेकेदारी? प्रशासनिक तंत्र अब इस प्रकरण को छुपाने -ढकने की बजाय ठोस जवाब दे। वरना जनता तो पूछेगी ही कैदी फरार, मंत्री खामोश और अफसर मौज में तो प्रदेश की सुरक्षा कौन देख रहा है?

25 हज़ार का जाल और करोड़ों का खेल
प्रदेश की जांच एजेंसियों की कहानी बड़ी दिलचस्प है। आमतौर पर इनकी ख़बरें तब आती हैं जब कोई पटवारी, तहसीलदार या आरआई 25-50 हज़ार की रिश्वत के साथ रंगे हाथों पकड़ा जाता है। कैमरा, माइक, फोटो सब धड़ाधड़ चलता है। आम जनता को लगता है कि भ्रष्टाचार की जड़ हिल गई। लेकिन जैसे ही मामला करोड़ों-अरबों के घोटाले का होता है, एजेंसी के कदम धीमे हो जाते हैं। जैसे बड़ी मछली जाल में आने ही नहीं पाती। अब आबकारी घोटाले का ही उदाहरण ले लीजिए। ऊपर तो खूब गहमागहमी हुई, पर नीचे स्तर पर यह तरकीब चली ही नहीं। और एजेंसी का तर्क सुनिए घोटालेबाज जांच में सहयोग कर रहे हैं, इसलिए गिरफ्तारी ज़रूरी नहीं। वाह साहब ! यानी जिसने अरबों का खेल किया, वही जांच में सहयोग करेगा और उसी सहयोग की आड़ में बच भी जाएगा। निचली अदालत ने जब यही तर्क सुना तो साफ कहा ये कैसा मज़ाक है? फटकार पड़ी। लेकिन आज उसी तर्क ने ऊपर के स्तर पर कमाल दिखा दिया और घोटालेबाज अधिकारी जमानत पर आज़ाद। अब सवाल है कि छोटे कर्मचारी पर जाल डालना आसान है, बड़े सौदेबाजों पर हाथ डालने की हिम्मत क्यों नहीं? क्या ये जांच एजेंसियां सिर्फ़ कैमरे के लिए काम करती हैं? और जो ऊपर से खेला सेट हुआ उसमें किसका हाथ है? सुनाई पड़ रहा है कि स्पीकर से लेकर एजेंसी के कुछ अफ़सर-ए-आ’ला तक इस सेटिंग में अपनी भूमिका निभा चुके हैं। अब तो गली-मोहल्ले में चर्चा है कि असली खेल तो जमानत दिलाने में हुआ। सोचिए, अगर इस पूरे सौदे की भी जांच हो जाए तो नया खेला ही खुल जाएगा। फिलहाल जनता यही कह रही है 25 हज़ार पकड़ो, करोड़ों छोड़ो यही है जांच एजेंसी का असली स्लोगन।

कट का खेल, हेल्थ विभाग बेहाल
प्रदेश में एक जनाब मंत्री जी हैं इन्हें अपने जिले की सड़कों, अस्पतालों या जनता की फिक्र कम, कट की चिंता ज़्यादा रहती है। इनके यहाँ तो यह हाल है कि सीएमएचओ या कलेक्टर तक से सीधे बात करने की बजाय एक लेब टेक्नीशियन से मंत्रणा होती है। अब सोचिए, एक मामूली कर्मचारी, लेकिन रसूख ऐसा कि जिले के डॉक्टर से लेकर दवा सप्लायर तक सब उसी दरबार में हाजिरी बजाते हैं। बताते हैं यही साहब कट के मैनेजर हैं ट्रांसफर, खरीदी, दवा सप्लाई, सबमें इनकी हिस्सेदारी पक्की। यहाँ तक कि जब कलेक्टर ने इन्हें निलंबित करने का आदेश दिया, तब भी नोटिंग फाइल में ही दबी रह गई। आखिर मंत्री जी की छत्रछाया जो थी! अब ज़रा हेल्थ डिपार्टमेंट की बानगी देखिए एक तत्कालीन सीएमएचओ की आय-संपत्ति इतनी कि 2018 से चुनाव लड़ने का मूड बनाए बैठे हैं। अस्पताल से निकलकर विधानसभा तक की पिच तैयार हो चुकी है।
दूसरा सीएमएचओ तो इतना जुगाड़ू निकला कि चोरी में करोड़ों का माल डकार लिया, और कागजों में रकम कम लिखवाई। इनाम मिला राजधानी से सटे जिले का चार्ज। और इस पूरे खेल में सबसे ऊपर मुस्कुराते हैं मंत्री जी। भाई साहब सप्लायर बनकर विभाग को दूध-धोना समझ रहे हैं, रिश्तेदार टेक्नीशियन अपना कट पहुँचाता रहता है और सीएमएचओ की दुकानें दिन-रात खनकती हैं। जनता अस्पताल में दवाई के लिए भटके, डॉक्टर के बिना वार्ड सन्नाटा मारे लेकिन मंत्री जी के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि कट सुरक्षित रहे। असल सवाल यह है कि स्वास्थ्य विभाग सेवा का मंदिर है या लूट का अड्डा? और मंत्री जी, क्या आपके लिए मंत्रालय सिर्फ़ कट का ठेका है?हाल यह है कि अस्पतालों में दवा नहीं, सिस्टम में कट का इंजेक्शन है।

इस हफ़्ते का अफ़सर-ए-आ’ला कहता है कि सूबे का हाल ऐसा है कि टैक्स से लेकर ट्रैफिक, जेल से लेकर जांच एजेंसी और हेल्थ विभाग तक हर जगह जनता पिस रही है, और हुक्मरान या तो मौन हैं या बस कट-PR में मशगूल। शासन कम, शोषण ज़्यादा इलाज कम, इंतज़ामात पर कट का खेल ज़्यादा है।

यक्ष प्रश्न –

1. क्या जापान की चाल फिर रंग लाएगी और चीफ़ सेक्रेटरी को दोबारा एक्सटेंशन का तोहफ़ा मिलेगा?

2. जंगल बचा या न बचा, मगर विभाग का मुखिया लगता है फिर से अपनी कुर्सी बचाने में माहिर साबित हो गया है!

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *