अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
राजधानी में ड्रग्स पहुँची, खुफिया विभाग नहीं –
राजधानी में पाकिस्तान से आई ड्रग्स की खेप उतर गई। 1 करोड़ का माल बरामद , नौ तस्कर गिरफ्तार लेकिन कहानी में सबसे बड़ा किरदार कौन है? वो जो मौजूद ही नहीं था हमारा खुफिया विभाग। ये वही महकमा है जो दावा करता है कि राज्य की हर हलचल पर नज़र है। मगर असलियत में नज़रें नींद में डूबी रहती हैं। पाकिस्तान से माल चला, सिर्फ़ सरहद नहीं, तीन-चार राज्यों को पार करके हमारे दिल यानी राजधानी में आ गया। इतने बड़े नेटवर्क का कोई इनपुट नहीं, कोई अलर्ट नहीं। यह वही डिपार्टमेंट है जो घटना के बाद बैठकों पर बैठकों का रिकॉर्ड बनाता है, और रिपोर्ट इतनी तेज़ी से लिखता है कि पढ़कर लगता है काश यही तेज़ी घटना से पहले दिखाई होती। खुफिया विभाग का स्लीप मोड अब पब्लिक मोड में है। सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं, अगर ये हमारी रक्षा पंक्ति है, तो दुश्मन को गुप्तचर भेजने की ज़रूरत ही नहीं। असलियत यह है कि खुफिया तंत्र तब जागता है जब अख़बार के पहले पन्ने पर हेडलाइन छप जाए। उससे पहले कोई हरकत नहीं, सिर्फ़ व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड से इनपुट जुटाना। सोचिए, ये ड्रग्स अगर राजधानी पहुँची, तो क्या सिर्फ़ पुलिस को ही इसकी गंध लगी? क्या हमारा गुप्तचर महकमा अब नाक से नहीं, न्यूज़ से काम करता है? जब सुरक्षा अलर्ट सिर्फ़ मीटिंग के नोट्स में हो,और असली खतरा बाजार में घूम रहा हो, तो फिर सवाल उठाना लाज़मी है क्या खुफिया विभाग सिर्फ़ बजट खपत का विभाग है, या सच में हमारी सुरक्षा ढाल? फिलहाल ढाल में इतना बड़ा छेद है कि पाकिस्तान से आई खेप भी बिना स्कैनर पास हो जाती है। और हां, अगले हफ़्ते खुफिया रिपोर्ट में ये सब ऑपरेशन के तहत नियंत्रित लिखकर फाइल में बंद कर दिया जाएगा।
अटल के आदर्श छोड़ फोटोशॉप में स्तरहीनता दिखाती भाजपा –
कभी भाजपा की राजनीति की पहचान अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों से होती थी। संसद में वे कहते थे विरोधियों से लड़ो, पर उन्हें शत्रु मत मानो। आज उसी पार्टी के आधिकारिक मंच से, एक पूर्व मुख्यमंत्री का चेहरा कुत्ते के शरीर पर चिपकाकर पेश किया जा रहा है। न तालियां विचारों पर , न वाहवाही नीति पर सब तालियां फोटोशॉप पर। ये सिर्फ़ एक व्यक्ति का अपमान नहीं है, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक तंत्र का। राजनीति में मतभेद होना ज़रूरी है, लेकिन मनुष्यता का अपमान अस्वाभाविक है। भाजपा भूल रही है कि फोटोशॉप से सीटें तो मिल सकती हैं, लेकिन सम्मान नहीं। चुनावी फायदे के लिए ऐसे हथकंडे अपनाना उसी पार्टी के आदर्शों का गला घोंटना है, जिसके नेता कभी विरोधियों की शोकसभा में भी खड़े होते थे। ये संस्कृति भाजपा की नहीं, न ही संघ की ये कुछ ठेकेदार नेताओं की है, जिन्हें सत्ता चाहिए किसी भी कीमत पर। सोचिए, कल अगर यही तरीका दूसरी पार्टी अपनाए, तो क्या भाजपा उसे स्वीकार करेगी? राजनीति का स्तर जब गाली और तंज़ से गिरकर जानवर बनाने पर आ जाए, तो ये लोकतंत्र का पतन है। राजनीति विचारों से जीती जाती है, न कि सोशल मीडिया मेम्स से। और अगर मेम ही आपका हथियार है, तो याद रखिए ये हथियार कभी भी आपके खिलाफ़ भी चल सकता है। वाजपेयी के दौर में विरोधी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे, आज वे मेम मैटेरियल हैं। फर्क सिर्फ़ इतना है कि तब राजनीति जीतती थी, और आज ट्रेंडिंग लिस्ट।
“ओडिशा की बेचैनी, छत्तीसगढ़ का चैन?”-
दिल्ली से खबर आई कि ओडिशा भाजपा के करीब डेढ़ दर्जन विधायक दिल्ली दरबार में हाज़िर हुए शिकायत अपने ही मुख्यमंत्री मोहन मांझी से। ना भ्रष्टाचार का मामला, ना घोटाले की दुर्गंध… बस गिला ये कि सरकार की स्टीयरिंग व्हील मंत्रियों के हाथ से निकलकर सीधे नौकरशाही के पास चली गई है। विधायकों का कहना है जनता ने हमें चुना, फैसले फाइलों ने क्यों लेने हैं? हाईकमान को याद भी दिलाया गया कि बीजू जनता दल की नाव इसी वजह से डूबी थी। तब नवीन पटनायक नहीं, बल्कि उनके करीबी अफसर वी.के. पांडियन सरकार के असली कप्तान थे। जनता ने सत्ता बदली, मगर अब भाजपा की पहली ओडिशा सरकार में भी वही स्क्रिप्ट रिपीट हो रही है बस कास्ट बदल गई है। अब आइए, छत्तीसगढ़ की तस्वीर देख लें। यहाँ भी चर्चा है कि मंत्रालय की चाभी किसी मंत्री के पास नहीं, बल्कि 2018 वाला 2005 बैच अफसर समूह के लॉकर में है। नेतृत्व कथित तौर पर एक ऐसे अफसर के हाथ में, जिन पर विपक्ष का तंज है इनका रोल सचिव का कम, कॉरपोरेट मैनेजर का ज़्यादा है। फाइलें मंत्रियों के पास सिर्फ़ साइन के लिए आती हैं, असली फैसला कहीं और हो चुका होता है। बैठकें कैबिनेट की कम, व्हाट्सऐप और क्लोज़-डोर ग्रुप्स की ज़्यादा होती हैं। ओडिशा के विधायक दिल्ली भागे, क्योंकि उन्हें डर है कि जनता को असली कप्तान का चेहरा नज़र आ जाएगा। छत्तीसगढ़ में विधायक शायद इस डर को पार्टी लाइन मान बैठे हैं जैसे यह लोकतंत्र का तयशुदा हिस्सा हो कि चुनाव नेता जीतें और सरकार अफसर चलाएँ। ओडिशा में बगावत की आहट है, छत्तीसगढ़ में चुप्पी की ताक़त यहाँ नेता मुस्कुराकर कहते हैं, सरकार हमारी है… रिमोट कंट्रोल कहीं और है, और बैटरी? वो कॉरपोरेट सप्लाई कर देता है।
पुलिस महकमा सिस्टम का वॉशिंग मशीन-
राज्य में आईएएस अफ़सरों पर शिकंजा कस रहा है, कारोबारी सलाखों के पीछे जा रहे हैं, लेकिन पुलिस महकमा ख़ासकर सीनियर आईपीएस अब भी ऐसे चलते हैं मानो कानून से ऊपर कोई और दर्जा हो। महादेव सट्टा, हवाला और मनी लॉन्ड्रिंग इन सब में कई बड़े पुलिस अफ़सरों के नाम केंद्रीय एजेंसियों की फाइलों में दर्ज हैं, लेकिन चार्जशीट में उनका नाम ऐसे ग़ायब हो जाता है जैसे साबुन में दाग़। ईडी छापे मारती है, फाइलें हिलती हैं, टीवी डिबेट्स और अख़बार की हेडलाइन बनती हैं फिर अचानक सब शांत। कभी खबर आती है कि अमुक आईपीएस के घर रेड हुई, फिर अगले दिन अफवाह थी कहकर उसे दफ़न कर दिया जाता है। 2024 में बुलेटप्रूफ जैकेट ख़रीद घोटाले में पुलिस के बड़े अफ़सरों के नाम आए, लेकिन चार्जशीट में उनका नाम हवा हो गया। 2015 के हाउसिंग स्कैम में बिल्डर और आईएएस जेल गए, लेकिन पुलिस के नाम जांच योग्य से आगे नहीं बढ़ पाए। आईएएस लॉबी अब खुलेआम सवाल कर रही है क्या कानून सिर्फ़ हमारे लिए सख्त है और पुलिस के लिए इलास्टिक? असल में पुलिस महकमा इस सिस्टम का ‘वॉशिंग मशीन’ बन चुका है घोटाले, हवाला, सट्टा सब इसमें डाल दो, और बाहर निकलेगी प्रेस की हुई देशभक्ति वाली नई यूनिफॉर्म। जब कानून के रखवाले ही स्लीपर सेल की तरह सिस्टम में बैठे हों, तो आम आदमी किससे न्याय मांगे? क्या वर्दी सिर्फ़ पहचान है, या जेल से बचाने वाला वारंटी कार्ड? जब जवाबदेही सिर्फ़ जनता और छोटे अफ़सरों के लिए हो, और बड़े अफ़सर संविधान से नहीं, नेटवर्क से चलें तो लोकतंत्र का सबसे खतरनाक चेहरा सामने आता है।
“अमारा जहाँ सपनों की कीमत कैश में चुकाई जाती है”
राजधानी की ज़मीन पर एक नया नगीना उभरा है अमारा। नक्शे में ये बस एक कॉलोनी है, लेकिन हकीकत में यह विभागीय ठेकों का ताजमहल है। यहाँ हर ईंट की कहानी टेंडर से शुरू होकर चेकबुक पर खत्म होती है। कहते हैं, इसके मालिक कोई आम बिल्डर नहीं, बल्कि विभागों के सपना-व्यापारी हैं ऐसे व्यापारी जो अफसरों को मुंगेरीलाल के सपने दिखाते हैं और फिर उनकी आंखों में रुपये के नोटों का नशा भर देते हैं। खेती से लेकर आदिवासी कल्याण तक, जहाँ भी सरकारी खरीद का मौका मिला, वहाँ से माल सीधे इस कॉलोनी की नींव में उतरा। डीएपी की बोरियों के साथ-साथ यहां ट्रकों में सिर्फ़ खाद नहीं, बल्कि कागज़ी मंजूरी भी उतरती रही। लोग कहते हैं, इस अमारा में सिर्फ़ सीमेंट-सरिया नहीं, बल्कि कई बड़े दस्तख़तों की काली कमाई भी पकी है। वे दस्तख़त, जो कभी फ़ाइल पर पड़ते थे तो करोड़ों का खेल बदल देते थे, अब प्लॉट नंबर चुनने में इस्तेमाल हो रहे हैं। चेहरे अब भी चमकते हैं, बस पहचान पत्र में पदनाम की जगह प्रॉपर्टी ऑनर लिख गया है। राजधानी में ऐसे सपनों के सौदागर पहले भी आए हैं। कभी नोटों की नहर बहाकर साम्राज्य खड़ा किया, और फिर एक दिन उसी नोट से हथकड़ी का वजन तौला गया। आज भी लोग चाय की दुकानों पर फुसफुसाते हैं ये कहानी ज्यादा लंबी नहीं चलेगी, पर इस बार किरदार अकेला नहीं गिरेगा, पूरी कास्ट एक साथ गिरेगी। अमारा के अंदर जो आलीशान बंगले आज पंखे की हवा खा रहे हैं, कल वही हवा किसी और पते पर मिलेगी फर्क बस इतना होगा कि लोकेशन सेंट्रल जेल और नाम बैरक नंबर हो जाएगा। यह कॉलोनी फिलहाल लक्ज़री है, पर राजनीति और जांच एजेंसियां एक दिन इसे अंडर कंस्ट्रक्शन केस में बदल देंगी। और तब मालिक से लेकर निवेशक तक सबको याद आएगा सपनों के महल रेत की बुनियाद पर खड़े नहीं होते, वे बस गिरने का इंतज़ार करते हैं।
जब इन सब मुद्दों पर अफ़सर-ए-आला से पूछा गया राजधानी की ड्रग्स खेप, भाजपा का गिरा फोटोशॉप स्तर, रिमोट कंट्रोल सरकार, पुलिस की वॉशिंग मशीन और अमारा कॉलोनी साहब मुस्कुराए और बोलेअरे, सब मीडिया की बातें हैं… सिस्टम चुस्त है, खुफिया जागरूक, राजनीति स्वस्थ, पुलिस ईमानदार और कॉलोनियां विकास का प्रतीक।”
यक्ष प्रश्न –
1. “संगठन के खिलाफ किन-किन ब्यूरोक्रेट ने अपनी भूमिका निभाई”?
2. “2005 बैच के करतूत से क्या नेतृत्व परिवर्तन की आशंका है”?








