अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

सुशांत की कलम से -

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

“जांच के नाम पर जाँच, निष्कर्ष के नाम पर शांत!”
राज्य में हर छोटे-बड़े घोटाले, लीक, विरोध या मीडिया हल्ले के बाद बनने वाली तथाकथित “उच्चस्तरीय जांच समितिया “छह महीनों में समितियाँ ऐसे बनी जैसे बारिश में मेढ़क गिनो तो सत्रह, काम पूछो तो सन्नाटा!” लेकिन एक भी समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई न विधानसभा में, न आरटीआई में, और न ही प्रेस में। छत्तीसगढ़ की इन जांच समितियों को देखकर लगता है कि यह किसी घोटाले की अंतिम क्रिया नहीं, प्रारंभिक पूजा होती है। नारियल की तरह मंच पर रख दो, मंत्र पढ़ लो, लेकिन कभी फोड़ना नहीं है! कुछ समिति तो ऐसी हैं जिनका चेयरमैन खुद छुट्टी पर है, अंदरखाने बताते है कि एक समिति अध्यक्ष ने अपना काम यह कहकर टाल दिया कि “फाइल नहीं मिली है।” दूसरी समिति के सदस्य ने कहा कि “सीएम बदल गया तो मामला भी बदल गया।” तीसरी समिति अब चौथे सदस्य की नियुक्ति का इंतजार कर रही है, क्योंकि पहला सदस्य दिल्ली, दूसरा रिटायर और तीसरा जेल में है! रिपोर्ट के नाम पर न तिथि, न स्थिति, और न ही समीक्षा सिर्फ एक स्थायी पंचलाइन होती है:
“अभी जांच जारी है!

“मंत्री नए  मंडली पुरानी !”
मंत्रिमंडल बदलने के बाद भी सचिवालय की संस्कृति जस की तस है। जनता ने चुनाव में सत्ता बदली, मुख्यमंत्री ने चेहरे बदले, लेकिन मंत्रालय की फाइलें आज भी उन्हीं पुरानी उंगलियों से पलटी जा रही हैं, आठ में से कम से कम पाँच नए मंत्रियों के साथ उन्हीं पुराने प्रमुख सचिव, OSD और PS फिर से नियुक्त हो गए हैं जिनका पिछली सरकारों या मंत्रियों से भी जुड़ाव रहा है। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो तीन-तीन मंत्री बदल चुके हैं, लेकिन उनकी कुर्सी और कलम अडिग है। अब मंत्री तो नए हैं, पर जिनके चाय के कप में नीतियाँ डुबोकर निकाली जाती हैं, वो ‘पुराने विश्वसनीय’ ही हैं। जैसे रिटायर्ड किरायेदार फिर से वही घर ले लें दरवाज़ा नया पेंट हो गया, लेकिन अंदर वही चायपत्ती, वही स्टूल, और वही फाइल पर टिके हुए गिलास! कुछ सचिवों की स्थिति तो ऐसी हो गई है जैसे “पॉलिटिकल पेंडेंट” चाहे जो पहन लो, गले में वही लटकते हैं। और मज़े की बात, कई तो अब खुद ‘गाइड’ बन गए हैं मंत्री जी को बता रहे हैं कि इस कुर्सी पर कैसे बैठना है, इस फाइल को कैसे ‘अनदेखा’ करना है, और प्रेस से कब ‘बचना’ है।
“मंत्री बदलगे, पर मुंसी के गिलास में अब्बड़ गुनगुना चाय ह अभी घलो पियावत हावय!”

“तीन कुर्सियों का ट्रायंगल एक ही कुर्सी के पीछे!”
राज्य सरकार की फाइल में एक आदेश निकला, लेकिन जैसे ही वह फाइल टेबल से उठी उसे तीन रास्तों ने घेर लिया।
मुख्य सचिव बोले “हमने भेजा था, लेकिन गृह विभाग को इनपुट नहीं दिया गया?”
गृह सचिव बोले “सुरक्षा मामला है, इसमें तो हमारा निर्णय अंतिम होना चाहिए!”
डीजी बोले “अगर आदेश पुलिस बल से जुड़ा है, तो हमसे बिना पूछे कैसे जारी हो गया?”
तीनों में तालमेल ऐसा कि जैसे एक ही थाली में खाना पर तीन अलग-अलग चम्मचों से!
सरकार चाहती है कि कुर्सी की प्रतिष्ठा बनी रहे, लेकिन कुर्सी पर तीन लोग बैठने की जिद ठाने हैं और जनता देख रही है कि अगर कुर्सी टूटी… तो मलबा किसके ऊपर गिरेगा?

कुर्सी का वज़न कप्तान से ज़्यादा-
पुलिस विभाग की पोस्टिंग व्यवस्था, जो ‘सेवा’ से ज़्यादा अब ‘सेटिंग’ पर आधारित है। बीते दिनों गृह विभाग में DIG, IG स्तर तक के अधिकारियों की ट्रांसफर/पोस्टिंग की फाइलें गुपचुप चलती रहीं। रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग जैसे बड़े जिलों के कप्तानों की कुर्सी हिलती नजर आई। कई जिलों में पुराने कप्तान हटाकर नए IG/DIG स्तर के अफसर भेजे गए। आदेश से पहले कई नामों की पोस्टिंग पर “राजनीतिक-प्रशासनिक सहमति” की अनौपचारिक मुहर लगी। होटल और गेस्ट हाउस में रात 11 बजे तक “डिनर मीटिंग्स” चलीं, जिनमें ‘खाने’ से ज़्यादा ‘कहाँ बैठेंगे’ की चर्चा गर्म रही। गृह विभाग में इन दिनों ‘रजिस्ट्री ट्रांसफर योजना’ चल रही है जहाँ हर कप्तान की पोस्टिंग को ऐसे देखा जाता है जैसे फ्लैट की रजिस्ट्री हो रही हो
“लोकेशन प्राइम है, फर्निश्ड पोस्टिंग है थोड़ा ऊपर-नीचे कर लो, बाकी दस्तखत हो जाएगा।” सूत्र बताते है कि “पैदल कप्तान से पोस्टेड IG तक सब इस लाइन में हैं। इस पूरी उठापटक में एक ‘अदृश्य समूह’ सक्रिय है, जिसे अफसरों की जुबान में ‘बैच मंडली’ कहा जाता है। इस बैच के दो ‘प्रभावशाली’ अफसर इस दौर में पोस्टिंग-पॉलिटिक्स के सेंटर में हैं। एक ‘राजधानी में रहकर राजधानी चलाने’ में माहिर, दूसरा ‘जंगल से राजधानी तक नेटवर्किंग के लिए चर्चित’। कहते हैं  “सिफारिश वही जो DM से लेकर DGP तक काम आए, और रजिस्ट्री वही जो नज़र ना आए पर नाम चला जाए।” “कुर्सी किसकी है ये जनता को आज तक पता नहीं चला, लेकिन डिनर किसके घर हुआ, वो अब व्हाट्सएप स्टेटस पर वायरल है!”

“बैकडेट में टेंडर, फ्रंटडेट में कमीशन!”
जल संसाधन विभाग में समय यात्रा की टेंडर स्कीम चल रही है। तीन जिलों में एक ही दिन तीन टेंडर पास हुए सभी 2023 की योजनाओं पर। और तारीखें? 2025 में फाइल चली, लेकिन टेंडर पर तारीखें थीं 2023 की! सूत्रों की मानें तो, कुछ टेंडर ऐसे हैं जो बजट पास होने से पहले ही पास हो गए, और काम भी “कार्य प्रारंभ की स्वीकृति” से पहले शुरू हो गया! “इंजीनियरों की स्याही तो सूख गई, लेकिन दलालों की कलम अब भी 2023 में दौड़ रही है! “यह विभाग इतना तेज़ है कि योजना बनते ही भविष्य से पीछे जाकर टेंडर पास कर लेता है टाइम मशीन जल विभाग में ही बनी थी क्या?”

“रिटायरमेंट के बाद संविदा और ऊपर से वित्तीय अधिकार!”
जल संसाधन विभाग का एक और कारनामा सुनिए 30 जून 2025 को जल संसाधन विभाग के प्रमुख अभियंता (ENC) इंद्रजीत उइके रिटायर हुए। लेकिन सिर्फ 7 दिन बाद 7 जुलाई को उन्हें संविदा पर फिर से वही पद सौंप दिया गया! बात यहाँ तक भी ठीक थी पर साहब को वित्तीय अधिकार भी दे दिए गए जबकि नियम कहता है कि संविदा अधिकारी को वित्तीय अधिकार नहीं मिल सकते। उसे कार्यालय प्रमुख नहीं बनाया जा सकता। ये बात वित्त विभाग के आदेश (2014) और हाईकोर्ट दोनों ने स्पष्ट की है। तो फिर ये ‘विपरीत गंगा’ क्यों बह रही है? आगे और सुनिए उइके साहब रिटायर होते वक्त अपने चहेते दीपक भूम्मेरकर को प्रभारी ENC बना गए थे। लेकिन 7 दिन बाद खुद ही लौट आए  “हम तो अभी भी बॉस हैं! “ऐसा विभाग है जहाँ अधिकारी रिटायरमेंट के बाद भी ‘हाज़िरी’ देने लौट आते हैं मानो Netflix की सीरीज चल रही हो। “सरकार को अब जल संसाधन विभाग के बोर्ड पर लिख देना चाहिए
‘यहाँ सेवानिवृत्ति स्थायी नहीं होती!’”

शासकीय सेवकों के बटुए पर नजर
छत्तीसगढ़ में इन दिनों शासन नहीं, आईएएस स्पेशल एडिशन चल रहा है। वित्त मंत्री, वित्त सचिव, सामान्य प्रशासन विभाग और ‘हाउस’ के खुदमुख्तार सब मिलाकर अब खुद को “सरकार” कहने लगे हैं। बीते महीने सामान्य प्रशासन विभाग ने दो फरमान निकाले और शासकीय सेवकों के बटुए में खलबली मचा दी:
1. शेयर बाज़ार में निवेश पर रोक,
2. म्युचुअल फंड को चल संपत्ति में गिनो।
यानि कमाओ, पर खर्च करो सरकार की मर्ज़ी से। बचत करो, लेकिन उस प्लेटफॉर्म पर जो मंत्रालय-मंज़ूर हो। मुखिया जी तो अब भी “बॉन्ड” को जेम्स बॉन्ड और “डिविडेंड” को भात परोसन की थाली समझते हैं। असल फैसले तो वो आईएएस चौकड़ी लेती है, जिनकी कलम से लोकतंत्र नहीं, सिर्फ नौकरशाही टपकती है। कर्मचारी संगठनों को अब समझ आने लगा है कि ये “पवित्रता अभियान” उनके लिए नहीं, अफसरों के गुप्त निवेशों की ढाल है। जूनियर क्लर्क SIP भरे तो संदिग्ध, अफसर बंगला खरीदें तो मौन! जब केंद्र सरकार निवेश बढ़ाने की बात कर रही है, तब छत्तीसगढ़ की अफसरशाही बटुए पर ताले क्यों लगा रही है? क्योंकि जब राजा अपनी समझ अफसरों के भरोसे छोड़ दे, तो जनता की जेब पहले कटती है, गुस्सा बाद में बैलेट बॉक्स में गिरता है। “राजा के सिर अफसरों की हौबी न चढ़े, वरना सत्ता से पहले जनता का बटुआ खाली होता है!” अब देखना है, ये ‘बटुए वाली नीति’ सरकार को अगली बार दस्तक दिलवाएगी, या फिर दरवाज़ा बाहर से बंद करवा देगी।

“शासन जब जांच में खोया, अफसरशाही जब सत्ता में सोई, तब जनता का बटुआ सबसे पहले खाली हुआ अफसर-ए-आ’ला यही बताते हैं।” 

यक्ष प्रश्न
1 “पुलिस विभाग के कौन से अफसर दिल्ली जाने की जी तोड़ कोशिश में लगे हैं और क्यों ?” 

2 “जो कल तक निलंबन की फाइल में दबा था, वो आज मीटिंग में मुख्य कुर्सी पर कैसे बैठा?”

3 “एक ऐसा कौन सा विभाग है जिसमें 35% कमीशन मंत्री जी द्वारा लिया जा रहा है?”

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