अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
जय परिवारवाद –
बिहार की राजनीति में एक नया मॉडल लॉन्च हुआ है लोकतंत्र को पारिवारिक पैकेज में बदल दो! किसी का बेटा मंत्री, किसी की बेटी विधायक, किसी का भतीजा पार्षद मतलब अब जनता वोट दे, और परिवार राज करे। पहले बड़े-बड़े भाषण हम परिवारवाद के खिलाफ हैं!और अगले ही पल बेटे-बेटियों को मंत्री पद का बर्थडे गिफ्ट क्या खूब नीति है अगर दूसरा दल करे तो परिवारवाद अगर हम करें तो योग्य वंशजों का उत्थान? एक लाइन में कहें नैतिकता की परिभाषा अब दल के हिसाब से बदलती है! बिहार की राजनीति में इस बार योग्यता देखने के लिए नया फॉर्मूला क्या आपका पापा नेता है? क्या आपकी मम्मी मंत्री रह चुकी हैं? क्या आपका खानदान राजनीति में सक्रिय? तो फिर जूते का साइज लिखिए, शपथ पत्र मिल जाएगा। लोकतंत्र कह रहा मैंने जनता को चुना था सिस्टम बोला हमने खानदान को चुना है। और जनता? लाइन में लगे रहो भाई वोट हम देंगे और कुर्सी गाँधी मैदान की वंशानुगत आरक्षण से मिलेगी। अब मन में बस एक ही नारा रह गया जो बोले परिवारवाद को जय हो! क्योंकि यही तो नया भारत है जहाँ सियासत कॉलेज नहीं, परिवार की प्रॉपर्टी है।
40 मिनट का रहस्य! –
बस्तर में कुख्यात नक्सली हिड़मा की मौत पर
रश्मि ड्रोलिया का लेख अचानक सुर्खियों में है।
रिपोर्ट में दावा कि हिड़मा आत्मसमर्पण करने वाला था, उसे धोखे से मार दिया गया। अब नक्सली भरोसा तोड़ देंगे। यानी पुलिस दोषी और हिड़मा बिचारा?यह वही पुराना एजेंडा है कि अपराधी को पीड़ित दिखाओ, सिस्टम को सवालों में घेरो। इन सबके बीच सबसे दिलचस्प सवाल यह नहीं कि रिपोर्ट क्यों लिखी गई बल्कि यह कि रश्मि ड्रोलिया को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से 40 मिनट की मुलाक़ात किसने और कैसे दिलवाई? और यह लेख उसी के तुरंत बाद क्यों? जब केंद्र सरकार ने 2026 तक नक्सलवाद खत्म करने का लक्ष्य तय किया है, तब हिड़मा बेगुनाह सिस्टम गुनहगार नैरेटिव क्या सिर्फ संयोग है? या किसी की स्क्रिप्टेड कोशिश? साफ़ बात हिड़मा था सैकड़ों बेगुनाहों की मौत का जिम्मेदार आतंकवादी। न उसे कोई महिमामंडन चाहिए न संवेदनशील सर्टिफिकेट। पत्रकारिता सवाल पूछे पर ऐसा नहीं कि जंगल के खूनी नायक बन जाएँ और जवान सवाल बन जाएँ। नैरेटिव की लड़ाई है मगर सावधानी जरूरी है।
मुख्यमंत्री का गाँव और पंचों का सामूहिक विद्रोह!
राज्य में विकास का ढोल पीटा जा रहा है। पर ज़मीन पर सन्नाटा है और यह सन्नाटा कहीं और नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के अपने गाँव बगिया में! जहाँ सरपंच खुद सीएम के भाई की पत्नी हैं, वहाँ हाल यह कि उप-सरपंच और वार्ड पंचों ने
एक साथ इस्तीफ़े की चिट्ठी थमा दी! कारण? न काम , न सुनवाई , पंचायत के भीतर ही पंचायत से तंग! पंचों का आरोप साफ़ विकास कागज़ में है, जमीन पर नहीं। अब जनता पूछ रही है अगर मुख्यमंत्री के गृहग्राम की ये हालत है, तो बाकी गाँवों का आंकलन किस माप से करेंगे? सरकार का नारा चाहे जितना ऊँचा हो, पर बगिया का यह सच बताता है शासन के केंद्र में ही अव्यवस्था की जड़ें फैली हैं। भाषणों में तो विकास है पर गाँव में निराशा। यह सिर्फ़ एक पंचायत नहीं, पूरे प्रशासनिक ढाँचे की पोल खोलती फाइल है!
फाइलें रुकी हुई हैं और संकेत चल रहे हैं?
सरकारी नियम साफ़ कहते हैं किसी भी पुलिस अधिकारी की नियुक्ति-स्थानांतरण की फाइल पहले विभागीय मंत्री, फिर मुख्यमंत्री की अनुमति से ही आगे बढ़ेगी। पर ज़मीन पर कहानी कुछ और चल रही है पिछले डेढ़ महीने से एसपी , अतिरिक्त एसपी , डीएसपी स्तर की फाइलें सीएम हाउस में धूल फांक रही हैं। निर्णय नहीं। लेकिन फोन? बारी-बारी से सभी को! सीधे नहीं, इशारों में डिमांड उधर, चार एसपी की हालिया लिस्ट बिना विभागीय मंत्री की मंजूरी के सीधे जारी हो जाती है यानि रूल बुक एक तरफ, रूल-ऑफ़-पावर दूसरी तरफ! फाइलें अटकी हैं पर संकेत नहीं। कानून लिखा है पर चल रहा है अनलिखा नियम। राज्य की संवेदनशील पुलिस पोस्टिंग अगर संकेतों से तय होगी तो फिर नियमन किसका और नियंत्रण किसके हाथ?
जमीन राज –
बीजापुर में उद्योगपतियों की जमीन खरीदी का खेल तो पहले से ही गर्म था अब तहसीलदार साहब भी उसी मैदान में उतर आए हैं! ताज़ा दस्तावेज़ बताते हैं कुटरु में पदस्थ तहसीलदार ने अपने ही बेटे के नाम पर वहीं जमीन खरीद ली! यानी जहाँ राजस्व सत्ता वहीं निवेश का मज़ा! अब सवाल उठ रहे हैं जो अधिकारी जमीन की सुरक्षा और पारदर्शिता के लिए जिम्मेदार है जब वही खेल के खिलाड़ी बन जाएँ तो न्याय कौन देगा? बीजापुर में जमीनों का लेनदेन इतनी तेजी से चल रहा है कि ऐसा लगता है, जंगल और आदिवासी क्षेत्र नहीं प्रॉपर्टी मार्केट का नया हॉटस्पॉट बन चुका है! राज्य सरकार नुमाइश में व्यस्त, और जिले में यह रस्साकशी कानून बनाम लाभ की। यह सिर्फ़ एक खसरा-नक़्शा नहीं, यह बताता है सिस्टम अब दलाली में उतर चुका है।
नई गाइडलाइन नया बोझ!
छत्तीसगढ़ में नई रजिस्ट्री गाइडलाइन दरें लागू होते ही जनता की जेब का बैरोमीटर नीचे और सरकार की उम्मीदों का ग्राफ ऊपर चला गया है। काग़ज़ पर इसे विकास की चाल बताया जा रहा है लेकिन ज़मीन पर यह सीधा बोझ बनकर गिरा है खासकर मध्यम वर्ग पर, जो न तो अमीरों की कतार में आता है और न ही सरकारी राहत में शामिल हो पाता है। पिछले कुछ सालों में घर खरीदना पहले ही आम आदमी के लिए सपने जैसा था,अब उस सपने पर स्टाम्प शुल्क का ताला और बड़ा कर दिया गया। प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं अधिकांश नकारात्मक,क्योंकि बहुत सी दरें अव्यावहारिक रूप से बढ़ा दी गईं जहाँ ना तो कॉलोनी बसी ना सड़क, ना पानी, ना रोशनी लेकिन रेट महानगर वाली सोच से तय! अब रियल एस्टेट में खरीदार गिनती के, और हिचकिचाहट भारी। सरकार कहती है बाज़ार मूल्य के अनुरूप दरें जनता पूछ रही बाज़ार सुधरा कब? जमीन पर तो नहीं, रसीद पर विकास बढ़ रहा है। घर के सपने को गाइडलाइन ने गाइडलाइन बना दिया है।
अफ़सर-ए-आ’ला का 42वाँ अंक में पढ़िये – यहाँ सत्ता का शोर नहीं, सिस्टम की सच्चाई बोलती है। कुर्सी और विकास के दावों के बीच कितना गहरा फासला है यहाँ हर परत खुलती है। फाइलों की राजनीति हो या गाँव की जमीनी हकीकत नक़ाब सबका उतरता है। नेता नहीं जनता केंद्र में होती है। व्यंग भी , तथ्य भी , चोट भी और सच्चाई भी एक साथ, एक जगह!
यक्ष प्रश्न –
1 . पत्रकार को गृह मंत्री अमित शाह से 40 मिनट की मुलाक़ात किसने और किस नीयत से दिलवाई?
2 . 400 से 200 यूनिट राहत कम या बिल का खेल ज़्यादा?









