अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
मोदी दौरे के मायने –
रजत जयंती पर राजधानी सजी हुई थी झंडे, बैनर और भाषणों के बीच एक अनकहा संदेश तैर रहा था। मुख्य अतिथि जब मंच पर पहुँचे, तो चेहरों से ज़्यादा निगाहें कैमरों की दिशा देख रही थीं कौन सामने है, कौन परदे के पीछे। एक चेहरा था जो पूरे कार्यक्रम का केंद्र बना रहा वह जिसने कुछ सालों में संगठन के भीतर चुपचाप अपनी जगह बना ली। मुस्कान में स्थिरता थी और आसन में आत्मविश्वास। दूसरी ओर, कुछ चेहरे जो आमतौर पर मंच के मुख्य फ्रेम में होते हैं, इस बार कहीं नज़र नहीं आए। लोग पूछते रहे क्या व्यस्तता थी या यह भी कोई संदेश है? राजनीतिक फिज़ाओं में जवाब पहले से तय है जब दिल्ली की हवा बदलती है, तो रायपुर की धूल खुद को समेट लेती है। अब कहा जा रहा है कि नवंबर में समीकरण भी नए होंगे, जैसे गुजरात की तर्ज़ पर पन्ने पलटने का समय आ गया हो। वह जो अब तक सबसे तेज़ दौड़ रहा था, शायद उसे रुककर साँस लेनी होगी, और जो धीरे चल रहा था, वही अब पथप्रदर्शक बन सकता है। रजत जयंती का जश्न बीत गया, पर मंच पर जो सन्नाटा बचा है, वही बताता है कि कहानी अभी ख़त्म नहीं बस किरदार बदलने बाकी हैं।
पुरानी चुप्पी –
1988 की बात है, जब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायपुर आए थे कांग्रेस के पास 250 सीटें, भाजपा महज 58 पर। काफिला मालवीय रोड से गुजर रहा था, और तभी एक नौजवान ने काला कपड़ा निकालकर मुख्यमंत्री की ओर उछाल दिया। वक़्त बदला वही नौजवान आज भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं। लेकिन राजनीति की यादें कभी पूरी नहीं मिटतीं। कहते हैं, जब नरेंद्र मोदी उस दौर में पार्टी पर्यवेक्षक बनकर रायपुर आए थे, तो इसी नेता की हरकतों से उन्हें एक रात पलंग के नीचे छिपना पड़ा था। और अब, दशकों बाद जब मोदी रायपुर मंच पर थे,सबके नाम लिए बस उनका नहीं। इतिहास फिर मुस्कराया, जैसे कह रहा हो काला कपड़ा उड़ चुका है, पर उसकी छाया अब भी मंच पर है।
पिस्तौल ड्रामा –
रायपुर के प्रशासनिक गलियारों में हाल ही में एक हाई-वोल्टेज ड्रामा ने सबको चौंका दिया। चर्चित अफसर ने विभागीय साथी को फोन कर कहा मुझे ऑफ द रिकॉर्ड वाली पिस्तौल चाहिए, मैं भी पुरन कुमार बनूंगा। कुछ ही मिनटों में हड़कंप मच गया, वरिष्ठ अधिकारी हरकत में आए, और चार घंटे तक समझाइश के बाद मामला शांत हुआ। लेकिन सवाल यहीं से शुरू हुआ क्योंकि पिस्तौल मांगने वाले वही अफसर हैं, जिनका नाम पूर्व सरकार के महादेव एप घोटाले में उछला था, और अब वही किसी महिला के गंभीर आरोपों की जांच कर रहे हैं। लोग तंज कस रहे हैं भ्रष्टाचारी ही जांच अधिकारी बन गया। कुछ इसे इमोशनल ब्लैकमेलिंग बता रहे हैं, तो कुछ ध्यान भटकाने की चाल। यह घटना दिखाती है कि जब अफसरशाही में अहंकार और राजनीतिक संरक्षण बढ़ जाता है, तो जवाबदेही मर जाती है। पिस्तौल ड्रामा केवल एक भावनात्मक विस्फोट नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आईना है जहाँ नाटक हकीकत बन चुक़ी है।
शेख़ बाबा की स्टडी लिव –
प्रशासनिक गलियारों में इन दिनों एक दिलचस्प चर्चा है कहने को तो यह स्टडी लिव है, पर कहानी सियासत से जुड़ी लगती है। 2005 बैच के एक चर्चित आईपीएस अधिकारी को पुलिस मुख्यालय ने सोलर एनर्जी पर अध्ययन के लिए विदेश जाने की मंजूरी दे दी। अब सवाल यह है पुलिस का सूरज और सोलर एनर्जी में क्या रिश्ता? नियम कहते हैं स्टडी लिव केवल विभागीय विषयों के लिए दी जाती है, लेकिन यहाँ नियम से ज़्यादा रसूख चला। जिस फाइल को आम अफसर महीनों में नहीं बढ़ा पाते, वह यहाँ हाथों-हाथ मंजूर हो गई जैसे सूरज उगने से पहले ही दिन तय हो गया हो। सूत्रों के मुताबिक यह छुट्टी अध्ययन से ज़्यादा राजनीतिक रणनीति के लिए है। रायपुर के आनंदम ठिकाने पर बैठकों में पुरानी सत्ता की वापसी का ब्लूप्रिंट तैयार हो रहा है। यानी सोलर एनर्जी तो बस बहाना है, असल एनर्जी तो सियासी करंट है, जो पुराने शिविर की बैटरी चार्ज कर रहा है। अगर यही स्टडी लिव है, तो कल को कोई जलवायु परिवर्तन के बहाने राजनीतिक माहौल बदलने निकल पड़ेगा। कहानी साफ़ है जब पुलिस महकमा सूरज की रोशनी नहीं, सत्ता की गर्मी पकड़ने लगे, तो समझिए अफसरशाही ने किताबें नहीं, कुर्सी की डायरी खोल ली है।
अपराध बाहर कम अंदर ज्यादा –
छत्तीसगढ़ की पुलिस इन दिनों फाइलों से ज़्यादा इश्क़ में व्यस्त है। आधे दर्जन बड़े अफसरों की दिलजली दास्तानें थानों से निकलकर सोशल मीडिया तक पहुँच गई हैं।
धमतरी की एक महिला ने इसी पुलिसिया मोहब्बत के चक्कर में जान दे दी,पर विशाखा कमेटी की रिपोर्ट जांच से पहले ही रद्दी में चली गई। कहते हैं, ज़्यादातर अफसर आईजी स्तर के हैं अब कानून नहीं, लव लॉ चल रहा है।थानों में एफआईआर नहीं, फीलिंग्स रजिस्टर भरे जाते हैं। कुर्सियों पर बैठे साहब डबल इंजन की नई परिभाषा लिख रहे हैं एक इंजन ड्यूटी का, दूसरा दिल का। राजनीतिक रसूख और विभागीय नरमी ने इन पर ढाल बना दी है,
कानून अब जनता के लिए है, अफसरों के लिए सुविधा। सुशासन की बातों के बीच महकमे में चर्चा है सुशासन नहीं, सुषमा-सीमा और सुनंदा चल रही हैं। वर्दी अब डर नहीं पैदा करती, बल्कि दिल के दरवाज़े खोलती है। और जनता सोचती है अगर यही कानून व्यवस्था है,
तो अपराधी बाहर नहीं, अंदर ज़्यादा बैठे हैं।
जंगल राजनीति –
जंगल के बीच बसे उस शांत जिले में इन दिनों एक नया तमाशा शुरू है। कहने को तो यहाँ पर्यटन को बढ़ावा देने की कवायद चल रही है, पर असल में ये कमेटियाँ अब कांग्रेसी क्लब में बदल चुकी हैं। कलेक्टर साहिबा पर चारों ओर से तारीफ़ों का नहीं, बल्कि माइक्रोफोन वाला दबाव है।आसपास वही चेहरे हैं जो कभी खबर लिखते थे, अब फायदे गिनते हैं। पत्रकारिता से प्रशासन तक की यह दोस्ती इतनी गहरी हो गई है कि निर्णय अब तथ्यों पर नहीं, तालियों पर होने लगे हैं। हाल ही में साहिबा ने बिना सोचे, बिना परखे एक ऐसे मीडियाकर्मी को पर्यटन समिति का सदस्य बना दिया जो खुद जंगलों में भालुओं और विस्फोटों के बीच खनन की नई परंपरा रच रहा है। यानी जो अब तक जंगल खोद रहा था, अब वही जंगल बचाने की सलाह देगा कुदरत भी शायद यही देखकर पेड़ों की जगह पत्थर उगा रही होगी। लोग हँसते हैं, पर भीतर से डरते भी हैं क्योंकि जब निर्णय फाइलों से नहीं, फोटोशूट से तय होने लगें, तो समझिए शासन नहीं, प्रचार तंत्र चल रहा है। वो जिला जहाँ प्रकृति खुद पर्यटन है, वहाँ प्रशासन ने पर्यटन को ठेका बना दिया है। और जो भालू का इलाका कभी जंगलों की साँस था, वह अब पॉलीथिन और प्रेस कार्ड की नई सीमा बन गया है। मायने यही हैं जब अफसर खबरों से शासन चलाने लगें, और पत्रकार जंगल की जगह जेसीबी के पास दिखें, तो समझ लीजिए यह जिला नहीं, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तब्दील हो चुका है।
शराब नीति –
कभी छत्तीसगढ़ की शराब नीति को देश की सर्वश्रेष्ठ मॉडल कहा गया था। राजस्व के ग्राफ़ पर इतनी रफ़्तार थी कि दूसरे राज्यों ने इसे कॉपी-पेस्ट कर लिया। दिल्ली से लेकर भोपाल तक कहा गया देखिए, कैसे सरकारी बिक्री से राज्य को फायदा और जनता को पारदर्शिता मिल रही है। पर अब वही नीति समीक्षा के घेरे में है। प्रशासन के गलियारों से खबर आ रही है कि सरकार फिर से ठेका मॉडल पर लौटने की सोच रही है। यानी वही पुराना खेल दुकानें निजी हाथों में, कमीशन की नई परंपरा, और बीच में राजस्व का नाम। जब नीति काम कर रही थी, राजस्व लगातार बढ़ रहा था, और अवैध शराब पर नियंत्रण था, तो फिर अचानक बदलाव की ऐसी क्या जल्दी है? क्या नीति बदली जा रही है, या नीति का लाभार्थी बदला जा रहा है? असल में, यह नीति एक दुर्लभ प्रयोग थी जहाँ राज्य को फायदा था, पर किसी व्यक्ति या संगठन को निजी लाभ नहीं। यही इसका गुण था, और शायद अब वही इसका अपराध बन गया है। कहा जा रहा है कि नीति बदलने की वजह नई सोच है,।पर सच्चाई यह है कि सोच नई नहीं, ज़रूरतें पुरानी हैं। राजस्व भले बढ़ रहा हो, पर व्यक्तिगत हिस्सेदारी शून्य है और यही शून्य अब सत्ता के समीकरण में खल रहा है। जो नीति पारदर्शिता का प्रतीक थी, वह अब समायोजन की शिकार बन रही है। क्योंकि जो व्यवस्था सबके लिए थी,
वह अब किसी के लिए बनानी पड़ रही है।
राजधानी से लेकर जंगल तक, फाइलों में अफसर अभिनय कर रहे हैं और मंच पर नेता संवाद पढ़ रहे हैं। पिस्तौल से लेकर स्टडी लिव तक, हर घटना सत्ता और सिस्टम की एक ही कहानी कह रही है राज्य चल रहा है, पर चलाने वाला कौन है?
यक्ष प्रश्न –
1 . 20 नंबर से 27 नवंबर छत्तीसगढ़ के लिए कितना अहम हो सकता है ?
2 . पुलिस विभाग में जारी ‘मी टू’ आखिर कहाँ जाकर रुकेगी?









