अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

विजन, बजट और ज़मीन –
सदन में इन दिनों भविष्य की बहुत चर्चा है।सीधे 2047 की। इतना दूर का सपना कि वर्तमान खुद असहज महसूस करने लगे। बजट आया, अनुपूरक भी आया, कहा गया कि यह विजन है। लेकिन विजन में गरीबी का चेहरा धुंधला दिखा। रोज़गार की तस्वीर अधूरी लगी।किसान की ज़मीन पर लाइनें खिंचीं,पर दिशा साफ़ नहीं हुई। सवाल उठा अगर 2047 का रास्ता इतना स्पष्ट है, तो आज की बेरोज़गारी इतनी अनिश्चित क्यों है? अगर उद्योग भविष्य में चमकेंगे, तो आज के युवाओं को अंधेरे में क्यों रखा गया है? विजन में बड़े शब्द हैं, पर छोटे लोग गायब हैं। लोकल का ज़िक्र है,पर लोकल रोज़गार फुटनोट में सिमट गया। डेटा की बात हुई, पर ज़मीन ने सिर हिलाया। आँकड़े आगे बढ़े, हकीकत पीछे छूट गई। जल, जंगल, ज़मीन तीनों का नाम लिया गया, पर जिम्मेदारी किसी ने नहीं उठाई। विधानसभा में सवाल पूछे गए, किसी विपक्षी ने नहीं, अपनी ही पंक्ति से। यह सवाल नहीं थे, यह चेतावनी थी कि विजन अगर ज़मीन से कट गया, तो वह पोस्टर बन जाता है, नीति नहीं। बजट से उम्मीद थी कि आज का बोझ हल्का होगा, पर चर्चा फिर कल के सपनों पर टिक गई। वर्तमान ने फिर पूछा मेरे लिए क्या?

चावल, एथेनॉल और हिसाब –
राज्य में एथेनॉल को लेकर बड़ा उत्साह है।कहीं इसे आत्मनिर्भरता कहा जा रहा है, तो कहीं पराली का समाधान। लेकिन सवाल फिर भी वही है हिसाब क्या कहता है? सरकार जिस चावल को करीब 3300 रुपये में खरीदती है,वही चावल एथेनॉल प्लांटों को लगभग 2250 रुपये में दिया जा रहा है। हैरानी यह कि खुले बाजार में यही चावल 2800 रुपये तक बिक रहा है। कहा जा रहा है चावल से एथेनॉल बनेगा, किसानों को लाभ होगा। लेकिन एक टन चावल से करीब 430–450 लीटर एथेनॉल ही बनता है, और सारी लागत जोड़ने पर मुनाफा काग़ज़ से बाहर झाँकता नज़र नहीं आता। राज्य में एथेनॉल की तस्वीर भी दिलचस्प है। कहीं गन्ना और गुड़ आधारित प्लांट, कहीं मक्का आधारित सहकारी प्रयोग, कहीं धान से एथेनॉल की तैयारी, और कुछ जिलों में एक साथ कई प्लांट लगाने की योजना। कहीं किसान लाभ की उम्मीद कर रहे हैं, तो कहीं दूषित पानी और पर्यावरण की शिकायतें भी सुनाई दे रही हैं। तो सवाल यह नहीं कि एथेनॉल क्यों, सवाल यह है कि किस कीमत पर और किसके फायदे के लिए? अगर सरकार खुद सब्सिडी देकर लॉस बुक कर रही है, तो जनता को यह जानने का हक है यह नीति भविष्य का रास्ता है या सिर्फ़ एक महँगा प्रयोग। क्योंकि विकास नारे से नहीं, गणित से टिकता है।

रूह से रूही तक –
कहते हैं एक विभाग है, जो काग़ज़ों में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए बना,लेकिन ज़मीनी हालात में वह इशारों के इश्तेहार का अड्डा बन गया है। यहाँ फाइलें चलती नहीं, हवा में घूमती उँगलियों से सरकाई जाती हैं। मंत्री जी कुर्सी पर ज़रूर बैठी हैं, पर कुर्सी की दिशा तय करने वाला कोई और है। एक ऐसा पात्र, जो पद में छोटा, पर हर फ़ैसले में ऑफ-साइड अंपायर की तरह मौजूद रहता है। कहते हैं, बिना उसके इशारे यहाँ एक पत्ता भी अपनी नस बदलने की हिम्मत नहीं करता। इस विभाग में बाउंड्री कितनी बड़ी होगी, किसे नो-बॉल मिलेगी,और किसे सीधे पवेलियन भेजा जाएगा सब कुछ उसी हाथ के इशारे से तय होता है।उधर सचिवालय के गलियारे में एक और कहानी चल रही है। एक ऐसी सचिव, जो मंत्री की नहीं, अपने ही अदृश्य दरबार की सुनती हैं। फाइलें ऊपर नहीं जातीं, बस एक खास कमरे में जाकर ध्यानावस्था में प्रवेश कर लेती हैं।विभाग में जब नई संचालक आईं,तो जाते-जाते किसी ने कान में फुसफुसा दिया आप साहब ज़रूर हैं, पर असली रिमोट कहीं और रखा है। मुखौटा बदल गया,पर चेहरे के पीछे की कहानी वही रही। कहते हैं इस विभाग में नीतियाँ नहीं बनतीं, समीकरण बनते हैं। यहाँ काम नहीं दिखता, बस तालमेल चमकता है। और महिलाएँ?वे अब भी उस विभाग के बाहर खड़ी हैं, जिसका नाम उनके नाम पर है, पर चाभी किसी और की जेब में।

खामोश सौदे –
बीते दिनों एक वर्दीधारी अफसर के जाने के बाद कई कहानियाँ चुपके से बाहर आने लगीं। कहानियाँ, जो ज़िंदा रहते फुसफुसाई जाती थीं, और मौत के बाद अचानक चर्चा बन गईं। कहा जा रहा है, कि सिस्टम के आसपास कुछ ऐसे चेहरे होते हैं, जो खुद कुछ नहीं होते,पर सब कुछ हो जाने का भरोसा दिलाते हैं। पोस्टिंग, कुर्सी, ताक़त सबके दाम तय होने की अफ़वाहें पुरानी हैं। बताया जाता है कि कथित तौर पर करोड़ों की दलाली का वादा किया गया, और कहा गया सब सेट हो जाएगा, बस इंतज़ार कीजिए।यह भी कहा जा रहा है कि आख़िरी बातचीत जाने से कुछ दिन पहले हुई थी।सवाल यह नहीं कि किसने किससे बात की। सवाल यह है कि ऐसी बातें करने का भरोसा आता कहाँ से है?अगर सिस्टम साफ़ होता, तो कोई बिचौलिया इतनी बड़ी गारंटी देने की हिम्मत करता क्या? अगर नियुक्तियाँ योग्यता से तय होतीं, तो दलाली की दुकान क्यों खुलती? हर बार किसी अफसर की मौत के बाद ये सवाल क्यों उठते हैं, ज़िंदा रहते क्यों नहीं? क्यों दलाली पर जांच की बात हमेशा बाद में आती है?असल प्रश्न अब भी वही है यह दलाली प्रथा कब, क्यों और कैसे बंद होगी? या फिर हर मौत के बाद हम सिर्फ़ एक और कॉलम लिखकर आगे बढ़ते रहेंगे?

दोगुने दाम का गणित –
एक आपातकालीन नंबर है, जिसका काम संकट में मदद पहुँचना है, लेकिन यहाँ संकट खुद सिस्टम में बैठा दिखता है। एक ही सेवा, एक ही कंपनी,एक ही काम फिर दो राज्यों में दो अलग-अलग रेट कैसे? एक जगह गाड़ी, ड्राइवर, डीज़ल सब कंपनी का, तो भी रकम सीमित। दूसरी जगह गाड़ी सरकार की, ड्राइवर और डीज़ल कंपनी का तो दाम अचानक दोगुना! यह कोई तकनीकी चूक नहीं लगती,
यह तो नीतिगत करिश्मा लगता है। ऐसा करिश्मा, जिसमें काग़ज़ तो नियमों के होते हैं, पर जेबें गणित से बाहर चली जाती हैं। टेंडर निकला, दावेदार आए, और छंटनी ऐसी हुई कि प्रतियोगिता खुद हैरान रह गई। जो बचे, वही जीते और जो जीते, वही महंगे पड़े।सवाल यह नहीं कि काम किसे मिला।सवाल यह है कि काम का दाम इतना कैसे बढ़ गया? अगर यही मॉडल सही है, तो बाकी विभाग अब तक सस्ते क्यों चल रहे थे? या फिर यहाँ किसी ने दाम बढ़ाने की आपातकालीन मंज़ूरी दे दी? आपात सेवा का मतलब होता है तुरंत राहत। लेकिन यहाँ राहत कंपनी को मिली, और बोझ जनता के हिस्से आया। यह अंतर काग़ज़ का है या नीयत का?

अफ़सर-ए-आ’ला कहते हैं –
विजन 2047 के सपने बड़े हैं, पर ज़मीन पर सवाल आज के हैं। बजट, एथेनॉल और आपात सेवाओं में गणित उल्टा चल रहा है। महिला सशक्तिकरण से लेकर वर्दी तक, फैसले इशारों में हो रहे हैं। और सिस्टम आज भी पूछ रहा है यह सब जनता के लिए है, या सिर्फ़ हिसाब से बाहर के सौदों के लिए?

यक्ष प्रश्न

1- शराब घोटाले की जांच में एक पूर्व ताक़तवर महिला अधिकारी से जुड़े दबे संकेत अगर अब फाइलों में सरकने लगे हैं, तो क्या यह सिर्फ़ प्रक्रिया है या किसी बड़े सच के खुलने की शुरुआत?

2- आदिवासी जिले की वो कौन सी कलेक्टर है जो अपने चेम्बर में अभद्र गाली देने ने मशहूर है ?

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