अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
जातन लागे वो तन जाने –
भयावह है यह! तत्कालीन मुखिया ने लिखा और सोशल मीडिया कांप उठा। बोले जांच एजेंसियाँ अब झूठे बयान बना रही हैं, साक्ष्य गढ़ रही हैं। सवाल उठा दिया कि अब न्याय भी बिकने लगा क्या? सुनने में तो बहुत डरावना लगा, लेकिन यह वही समझे जिसने कभी झूठ को सच और सच को झूठ बनवाया हो। जब यही साहेब कुर्सी पर थे, तब उनके ही दरबार में एक शेख चिल्ली था। जांच एजेंसी का कप्तान, बयान घड़ने का उस्ताद। कहानी सब जानते हैं अपने ही सीनियर पर छापे, फर्जी बयान, गढ़े हुए साक्ष्य और तो और…फर्जी सोना तक प्लांट करवा दिया गया। तब साहेब बोले थे “सब कानूनी प्रक्रिया है।” फर्जी मामलों में तो आपके शासनकाल में पत्रकार भी नहीं बचे थे। नीलेश शर्मा और सुनील नामदेव जिन्होंने आपकी सत्ता के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई उनके घर तोड़े गए, जेल में बंद किया गया और सेनेटाइज़र तक पिलाया गया। तब न अदालत याद आई, न मानवाधिकार… तब भयावह नहीं था, तब “न्याय” हो रहा था! आज वही एजेंसी, वही ढांचा, वही खेल… बस कुर्सी और किरदार बदल गए हैं। तब यह “न्याय” था, अब “भयावह” है और मज़े की बात यह कि आज शेख चिल्ली की जगह उनकी ही कॉकस लॉबी बैठी है वही जो कल इशारों पर चलती थी, आज आदेश लिख रही है। वक़्त का पहिया घूम गया है साहेब। कल जो दूसरों के लिए रचा गया था, आज उसी का असर अपने दरवाज़े तक पहुँच गया है। इतिहास की यही विडंबना है झूठ जब लौटता है, तो पहले सृजनकर्ता की चौखट पर दस्तक देता है। अब ट्वीट से न्याय नहीं मिलेगा, क्योंकि न्याय वही समझे जो अपने शासनकाल में किसी और का बयान जबरन नहीं लिखवाया हो। बाकी बात बस इतनी जिस दर्द को तुम आज “भयावह” कह रहे हो, वही दर्द कल दूसरों ने तुम्हारे राज में झेला था।
जातन लागे वो तन जाने…
जब दवा ज़हर बन गई और सिस्टम चुप रहा!
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में जहरीली कफ सिरप पीकर 22 मासूमों की मौत ने पूरे देश की रूह हिला दी। रिपोर्ट कहती है जिस सिरप में सिर्फ़ 0.10% तक रसायन होना चाहिए था, उसमें 48% ज़हर मिला हुआ था! कंपनी का मालिक अब सलाखों के पीछे है, मगर सवाल जेल की दीवारों से बाहर हैं इतनी जहरीली दवा बाज़ार में पहुँची कैसे? यह सिर्फ़ मध्यप्रदेश का नहीं, पूरे सिस्टम की मौत है। छत्तीसगढ़ में भी 9M जैसी कंपनियाँ फंगस लगी, घटिया दवाइयाँ खुलेआम सप्लाई कर रही है। अस्पतालों की अलमारियों में ज़हर के शीशे सजे रहे, और विभागीय अफसर रिपोर्ट देखकर भी आँख मूँदे है। अगर नियामक सो जाएँ और लालच जाग जाए, तो हर बोतल दवा नहीं, संभावित मौत होती है। सरकारें बदलती हैं, पर तंत्र वही है जिसकी आत्मा रुपयों में गिरवी रखी जा चुकी है। “जहाँ इलाज बिके, वहाँ इंसानियत मरती है, और जब दवा ज़हर बन जाए तो शासन दोषी होता है।”
हेलमेट वाला इश्क़ सुगंध प्रशासन की गलियों में! –
कहते हैं इश्क़ और खुशबू दोनों छुपाए नहीं छुपते! और जब खुशबू किसी सरकारी दफ्तर से उठे, तो हवा भी नोटशीटों पर मुस्कुराने लगती है। एक बड़े जिले में इन दिनों हवा कुछ ज़्यादा ही “सुगंधित” है। कारण? एक जिले के कलेक्टर साहेब का दिल एक विकासखंड की स्तरीय अधिकारी पर टिक गया है। साहेब मूलतः उत्तरप्रदेश से आते है , पर अब उनके दिल का मुख्यालय यहीं है जिसपर “एक कनिष्ठ अफसरनी” का कब्ज़ा जम चुका है। कहानी फिल्मी है, मगर किरदार प्रशासनिक है। साहेब स्कूटी पर हेलमेट लगाकर रात के अध्यायों में निकल जाते हैं। हेलमेट चूंकि सड़क दुर्घटना और प्रशासनिक दुर्घटना दोनों से बचने के लिए जरूरी है। यह सब कुछ गोपनीय था, लेकिन जैसे ही हीरो का हार बीच में आया, राज खुल गया। कहते हैं, वही हार अब पूरे जिले का हार्टबर्न बन गया है। हार से निकले किस्से अब ज्वेलरी, महंगे तोहफ़ों और ट्रांसफर पोस्टिंग के खेल तक पहुँच गए हैं। एक बार किसी एसडीएम किस्म के अधिकारी ने आँख तरेरी थी, कलेक्टर साहेब ने ऐसी क्लास ली कि तब से जिले में सबके होंठ सिल गए हैं। अब तो वहाँ नियम यही है “सैया भय कोतवाल, तो डर काहे का!” कहा जा रहा है, अब जिले में प्रेम और प्रमोशन दोनों का फॉर्मेट बदल गया है फाइलों में ‘सिफारिश’ नहीं, ‘संबंध’ चलता है। और स्कूटी पर चलता है साइलेंट रोमांस विद हेलमेट प्रोटेक्शन! लोग कहते हैं अब तो अफसरशाही में नया विषय जोड़ा जाए “प्रशासनिक इश्क़ एवं गोपनीयता प्रबंधन”। क्योंकि यहाँ हर फाइल, हर ट्रांसफर, और हर गिफ्ट का “अलगा भावार्थ” होता है। अंत में कुछ पंक्तियाँ
“कुर्सी संभालो या दिल, दोनों में तमीज़ चाहिए,
वरना फाइल भी बोलेगी ये फैसला नहीं, कहानी है।”
संवाद का दफ्तर… और असंवाद का लाइव शो!
पहले आधी-अधूरी वीडियो आई लगा कोई कथित पत्रकार जबरिया किसी के चेंबर में घुस रहा है! कुछ देर में दूसरा हिस्सा आया तो नज़ारा पलट गया तिवारी जी से कुर्सी नहीं संभली, और बात सीधा हाथापाई तक पहुँच गई! अब भईया… जहाँ संवाद होना चाहिए था, वहीं असंवाद का लाइव शो चल पड़ा। फिर आनन-फानन में प्रेस बुलेटिन जारी हुआ, और कुछ मीडिया ग्रुप ऐसे टूटे जैसे विज्ञापन का आर.ओ. वहीं से कटने वाला हो! सवाल यह नहीं कि वो पत्रकार था या “कथित पत्रकार” सवाल उस दफ्तर का है, जो संवाद के लिए जाना जाता था। जहाँ तिवारी जी जैसे अधिकारी ढाई दशक से अंगद के पैर जमाए बैठे हैं और वही जनसम्पर्क विभाग जिसने कल तक करोड़ों के विज्ञापन बाँटे थे, आज चिल्लर के झगड़े में गिरेबान तक पहुँच गया है! हँसी भी आती है… और सवाल भी उठते हैं। जो कल सरकार की छवि चमका रहे थे, आज उसी दफ्तर में गले दबाए जा रहे हैं। अब मामला सिर्फ एक वीडियो का नहीं यह जनसम्पर्क की साख का सवाल है। जहाँ संवाद की ज़रूरत थी, वहाँ अब बस असंवाद वायरल है और पटकथा में नायक कोई नहीं है , बस संवाद गायब है।
“कानून की मर्यादा बड़ी, या रसूख की छतरी?”
बीते दिनों अदालत ने कोल शराब घोटाले के आईएएस अफसरों और कारोबारियों को सशर्त जमानत दी जिसमे शर्तें साफ थीं गवाहों को प्रभावित नहीं करना है, और राज्य की सीमा में प्रवेश नहीं करना है, जब तक अदालत बुलाए नहीं। कागज़ों पर सब न्यायसंगत लगा लेकिन ज़मीनी तस्वीर किसी “जेल डायरी” से कम नहीं। जो कल तक जेल की सलाखों में आत्ममंथन कर रहे थे, आज वही राजधानी के मॉल में शॉपिंग करते, कॉफी पीते और सेल्फी पोस्ट करते दिख रहे हैं। किसी महिला आईएएस को तो मॉल में खुलेआम घूमते देखा गया न सिक्योरिटी, न झिझक मानो अदालत नहीं, एवार्ड शो से लौट रही हों! इधर 3 अक्टूबर को महासमुंद के लभरा गांव के एक फार्महाउस में “रंगीन रिवाइवल पार्टी” का आयोजन हुआ कहते हैं, वहाँ शराब भी थी, शबाब भी था, और कबाब भी! और कई नौकरशाह भी थे वही चेहरे जो जमानत की शर्तों पर दस्तखत करवा चुके थे। अब सवाल उठता है क्या यह “जमानत” है, या “रसूख की वापसी”? कोर्ट ने कहा था राज्य से बाहर रहना है पर ये तो राज्य के दिल में ही बसे हुए हैं! शायद कानून की लकीर सिर्फ़ आम लोगों के लिए होती है, क्योंकि जब रसूखदार गलती करते हैं, तो उसे “शर्तों की व्याख्या” कहा जाता है। बस एक सवाल – “कानून की मर्यादा बड़ी, या रसूख की छतरी?”
प्रतिनियुक्ति का खेल जाना है, पर जाते नहीं
राजधानी के गलियारों में एक पुराना खेल फिर लौट आया है नाम है “प्रतिनियुक्ति का महाभारत”। हर हफ्ते, हर पखवाड़े नई अफवाह उड़ती है “साहेब अब दिल्ली जा रहे हैं… आदेश बन गया है!” फिर दो दिन बाद वही साहेब दफ्तर में इत्मिनान से चाय की चुस्की लेते मिल जाते हैं, जैसे कह रहे हों “हम जहाँ खड़े हो जाते हैं, अफवाह वहीं खत्म हो जाती है।” यह कोई नया खेल नहीं। रमन-युग में भी एक साहेब थे खुफिया चाल के माहिर, हवा उड़ाने में उस्ताद। पंद्रह साल तक “जाने वाले” कहलाते रहे, मगर गए नहीं। सेवानिवृत्त हुए, पर प्रतिनियुक्ति की फाइल आज तक धूल खा रही है। अब उसी तर्ज़ पर राजधानी में दो “उत्तराधिकारी साहेब” चर्चा में हैं एक खुफिया विभाग संभालते हैं, दूसरा जांच एजेंसी के शिखर पर विराजमान है। हर बार वही स्क्रिप्ट “ऑर्डर बन गया है… दिल्ली बुला रही है…” और हर बार वही क्लाइमेक्स ऑर्डर फाइल में सो जाता है, और साहेब फिर अगले मीटिंग में मौजूद! कहते हैं, इन दोनों के लिए प्रतिनियुक्ति अब पोस्टिंग नहीं, कवच बन चुकी है। कभी सत्ता के संतुलन की वजह से, कभी अंदरूनी समझौते की वजह से दोनों वहीं टिके हुए हैं, जहाँ रहना सबसे “सुरक्षित” है। कार्यालयों में अब चुटकी चलती है “साहेब तो इतने दिन से सामान पैक कर रहे हैं कि सूटकेस खुद थक गया होगा!” सवाल यही है बस कि इन दोनों को रोका कौन है? या यूँ कहिए ये खुद क्यों नहीं जा रहे? शायद इसलिए कि “कुर्सी” अब पद नहीं, पसंद बन चुकी है। कभी-कभी लगता है रमन युग गया नहीं, बस चेहरों ने मुखौटा बदल लिया है। नीति वही, नेटवर्क वही, और “जाने की खबर” आज भी वहीं से उड़ती है जहाँ से तब उड़ती थी। अंत मे एक लाइन “जाने की खबर रोज़ उड़ती है, पर रवानगी का नाम नहीं…
अफसर वो नहीं जो चला जाए, अफसर वो है जो हवा बना दे।”
इन सबके बाद अगर कोई पूछे कि अफसरशाही क्या सोचती है तो जवाब बस इतना है –
“हम वही करते हैं जो ऊपर से कहा जाए… फर्क बस इतना है कि अब ऊपर कौन है, यह हर पाँच साल में बदल जाता है।”
यक्ष प्रश्न
1 – झारखंड में जो 100 करोड़ पकड़ाया लेकिन रिकार्ड में नही आया यह रकम छतीसगढ़ के किस ओएसडी का बताया जा रहा है ?
2 – क्या दिसंबर में राजनीतिक रूप से बड़ा फेरबदल है ?








