अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
सत्ता के साए में चालें –
कहते हैं, जब सत्ता की हवा बदलती है, तो सबसे पहले धूल उन्हीं के चेहरों पर उड़ती है, जो साफ़ दिखाई देते हैं। प्रदेश में जैसे ही बदलाव की बयार उठती है, वैसे ही कुछ कानूनी दिमागों पर बिजली गिरती है। वे लोग जो सालभर नीति और निष्ठा की बातें करते हैं, अचानक निशाने पर आ जाते हैं जैसे कोई अदृश्य टीम तय करती हो कि आज किसकी खामोशी को खबर बनाना है। भीतरखाने की मानें तो ये कोई बाहरी हमला नहीं, घर के ही तीरंदाज़ों का खेल है। वो तीर हमेशा उन्हीं पर छोड़े जाते हैं, जो संगठन के करीब हैं, मगर सत्ता की रसोई में नहीं। दिलचस्प यह कि ऐसे वार अक्सर तब होते हैं, जब प्रधानमंत्री या गृहमंत्री का दौरा तय होता है बाहर स्वागत के फूल सजते हैं, और भीतर कुर्सियों की लकड़ी सुलगाई जाती है। अब टीम शब्द का मतलब भी बदल गया है ये अब संगठन नहीं, संघर्ष समिति बन चुका है। जहाँ कुछ लोग पार्टी नहीं, अपने कद और संपर्क बचाने में लगे हैं। राजनीति में सबसे बड़ा अपराध है काबिल होना। क्योंकि नाकाबिलों की शांति तभी रहती है, जब काबिल को बदनाम किया जा चुका हो। सत्ता चाहे किसी की भी हो, शाख तो सबकी गिरती है। पर जिन्हें मैं-मैं का रोग लग चुका हो, उनके लिए देश, जनता और संगठन बस शब्द भर हैं। अब जब हवा फिर से बदल रही है, तो साज़िशों की गंध फिर वही पुरानी है हमाम में सब नंगे हैं, साहब, फर्क बस इतना है कि किसी के पास तौलिया नया है।
जब अपराध शास्त्र खुद आरोपी हो गया –
कहते हैं कानून की किताबें पढ़ो, ताकि अपराध से बचो। पर अब लगता है, कानून की किताबें लिखो, ताकि जब अपराध लगे तो तर्क अपने ही पन्नों में मिल जाएं! देखिए न, वही वर्दीधारी साहब जिनका नाम इन दिनों फाइलों, चैट्स और जांचों में घूम रहा है उन्होंने अपराध शास्त्र , पुलिस प्रक्रिया , मानव अधिकार, पुलिस और समाज जैसी किताबें लिखीं हैं और सबके नीचे लिखा है पुलिस विभाग के प्रशिक्षण हेतु अत्यंत उपयोगी। अरे वाह! शायद यही किताबें उन्होंने पहले खुद पढ़ी होंगी फर्क बस इतना है कि अब प्रशिक्षण केंद्र की जगह जांच एजेंसी है। अब सोचिए, जिसने भीड़, मनोविज्ञान और कानून-व्यवस्था पर ग्रंथ लिखा, वो खुद रिश्तों की भीड़ में फँस गया और व्यवस्था से भिड़ गया! और जिसने पुलिस और समाज पर विचार दिए, वो अब समाज और पुलिस दोनों के बीच चर्चा का विषय है! कानून कहता है सबूत बोलते हैं। पर यहाँ सबूतों से पहले किताबें बोल रही हैं हमारे लेखक निर्दोष हैं, क्योंकि उन्होंने हमें लिखा है! विडंबना यह भी है कि इन किताबों की जिल्द पर लिखा है नवीन आपराधिक कानूनों पर आधारित। सही लिखा है क्योंकि अब नवीन उदाहरण भी इन्हीं पर आधारित होंगे! राजधानी की हवा में अब एक नया मुहावरा चल पड़ा है कानून की समझ होना अच्छी बात है, लेकिन कानून लिखकर उसे तोड़ देना ये तो डाँगी संस्करण है!”
रिश्तों के ट्रक,भरोसे के मकान और वर्दी की कहानी –
कहते हैं, कुछ कहानियाँ दफ्तर की फाइलों से नहीं, रिश्तों की रजिस्ट्री और जमीन के कागज़ों से उजागर होती हैं। एक ऐसा ही मामला इस समय सत्ता के गलियारों में फुसफुसाहट की तरह घूम रहा है जहाँ कर्तव्य और कशिश का मेल इतना गहरा हुआ कि सरकारी ज़िम्मेदारी और निजी रिश्ते की रेखा मिट गई। मामला नया नहीं शुरुआत 2017 की बताई जाती है। पर खुलासा 2025 में हुआ। अब सवाल यह है कि आठ साल तक यह रिश्ता फाइलों के नीचे दबा कैसे रहा, और अचानक फाइल खुद-ब-खुद खुल कैसे गई? अंदरखाने बताया जा रहा है कि वर्दीधारी साहेब ने इस विशेष संबंध के नाम पर ट्रक, मकान और कुछ बेनामी संपत्तियाँ महिला के नाम दर्ज कराईं। रिश्ता सिर्फ पेशेवर नहीं रहा वह निजी जीवन तक जा पहुँचा। बात जब साथ निभाने की आई, तो रास्ते अलग हो गए और वहीं से यह रिश्ता एक केस फाइल बन गया। कहते हैं साहेब का रुझान सिर्फ प्रेम में नहीं, पावर प्लांट में भी था। बालको जैसे औद्योगिक ठिकानों में भी उनके इन्वेस्टमेंट की चर्चा है जहाँ ऊर्जा सिर्फ बिजली में नहीं, रिश्तों की केमिस्ट्री में भी लगाई गई थी। अब जब महिला ने शिकायत का रास्ता चुना, तो साहेब के करीबी कहने लगे मामला गलत दिशा में चला गया। पर असल में दिशा नहीं बदली, दिशा देने वाला बदल गया। शोषण से शुरू हुआ यह विवाद अब रिश्ता, संपत्ति और भरोसे की त्रिकोणीय लड़ाई बन गया है। और सत्ता के गलियारों में यह वही पुरानी कहानी दोहरा रहा है जब तक रिश्ता गर्म रहा, शिकायत ठंडी रही अब रिश्ता ठंडा पड़ा, तो फाइलें गर्म हो गईं।
दवा नहीं, विभाग बीमार है! –
राजधानी में अब सरकार दवा से नहीं, दवा खरीद की प्रक्रिया से इलाज कर रही है। मरीज भले पर्ची लेकर घूमते रहें, पर दवा की फाइल जेम पोर्टल और स्वास्थ्य विभाग के बीच ICU में पड़ी है। सीजीएमएससी कहती है जेम पोर्टल महंगा है। विभाग कहता है यही नीति है।और मरीज कहता है साहब, चाहे पोर्टल से लो या परचून से, बस दवा दे दो! अस्पतालों में डॉक्टर इंजेक्शन मांगते हैं, अफसर इंस्ट्रक्शन भेजते हैं। 75 करोड़ का अतिरिक्त बोझ, 104 दवाओं की खरीद और हजारों मरीज इंतज़ार में यह सरकारी स्वास्थ्य नहीं, कागज़ी स्वास्थ्य योजना है। कहा जा रहा है कि खुले टेंडर से दवा सस्ती मिलती, पर विभाग को सस्ती दवा से एलर्जी है उन्हें वही पसंद जो कमीशन में असरदार हो।अब अस्पतालों में मरीज नहीं, फाइलें भर्ती हैं। हर बिस्तर पर एक सवाल रखा है इलाज कब शुरू होगा? और जवाब वही पुराना प्रक्रिया में है। रोग का नाम विभागीय टकराव , इलाज फाइल का इंतज़ार , स्थिति स्थायी , क्योंकि इस देश में अब मरीजों को नहीं, विभागों को दवा चाहिए और वो भी मंज़ूरी के साथ।
और इलाज बिकाऊ है!
इधर सरकार जेम पोर्टल की दवा को लेकर झगड़ रही है, और उधर राजधानी के बड़े अस्पतालों में मरीजों की सांसें भी एमआईसीयू दर से चार्ज की जा रही हैं। राजधानी के मशहूर मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में निमोनिया के इलाज के नाम पर 26 दिन में 21 लाख रुपये वसूले गए, और अंत में मरीज नहीं बची बस बिल ही ज़िंदा रहा। सरकारी अस्पताल दवा के इंतज़ार में है, और प्राइवेट अस्पताल बिल के विस्तार में। एक तरफ़ स्वास्थ्य विभाग प्रक्रिया में है, दूसरी तरफ़ प्राइवेट सेक्टर प्रॉफिट में। बीमारी वही बस इलाज का भाव अलग-अलग! एमएमआई, रामकृष्ण और ऐसे कई हॉस्पिटल अब इलाज से ज़्यादा पैकेज प्लान में दिलचस्पी रखते हैं। जहाँ सरकारी अस्पताल में मरीज डॉक्टर ढूँढता है, वहाँ प्राइवेट अस्पताल में डॉक्टर मरीज का एटीएम ढूँढता है। सरकारी रिपोर्ट कहती है दवा खरीदी रुकी है। प्राइवेट अस्पताल कहते हैं बेड खाली नहीं है। और जनता कहती है अब कहाँ जाएँ फाइलों में या फर्श पर? कहते हैं, स्वास्थ्य सेवा इंसानियत का काम है पर यहाँ इंसानियत पैथोलॉजी रिपोर्ट में निगेटिव आ रही है। अब सरकार दवा से लड़ रही है, और अस्पताल मरीज से दोनों तरफ़ इलाज नहीं, कमाई का ऑपरेशन चल रहा है।
किताबें नहीं आईं, लेकिन सज़ा जरूर आ गई! –
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव की स्कूल में बच्चों को किताबें नहीं मिलीं। शिक्षक ने सोचा सरकार तक बात पहुँचा दी जाए। पर विभाग तक बात पहुँची तो किताबें नहीं, निलंबन आदेश पहुँचा दिया गया। अब किताबें तो खैर अगले शैक्षणिक सत्र में शायद पहुँचें,पर शिक्षक महोदय को शिक्षकीय गरिमा के विपरीत टिप्पणी के लिए तुरंत ही गरिमा पूर्वक बाहर कर दिया गया। कहते हैं राज्य में शिक्षा व्यवस्था बेहतर हुई है सच है, अब शिक्षक बच्चों को नहीं, शासन को पढ़ा रहे हैं कि सवाल मत पूछो, वरना ट्रांसफर या सस्पेंशन तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। राजधानी के वातानुकूलित कमरों में बैठे अफसर अब बच्चों की किताबों की जगह शासन की छवि सुधारो पुस्तिका बाँट रहे हैं। जहाँ हर शिक्षक से उम्मीद है कि वो किताबें नहीं आई न बोले, बल्कि प्रगति जारी है पोस्ट करे। विडंबना देखिए जो शिक्षक बच्चों की शिक्षा सुधारना चाहता था, उसे व्हाट्सऐप की अशिक्षा का सबक पढ़ाया गया। कभी लगता है कि अब स्कूलों में नया विषय जोड़ देना चाहिए सोशल मीडिया पर शासन से कैसे न उलझें 101सिलेबस में पहला पाठ , किताबें न हों, तो भी शांति बनाए रखें क्योंकि शिक्षा से ज़्यादा जरूरी है अनुशासन!
अफ़सर-ए-आ’ला के 40 वे एपिसोड में जानिए कि आखिर कौन चला रहा है सत्ता के साए में चालें, क्यों अपराध शास्त्र खुद आरोपी बन बैठा,कैसे रिश्तों के ट्रक में भरोसा लदा और वर्दी की चमक धुंधलाई, क्यों दवा नहीं, पूरा विभाग बीमार है, कैसे इलाज अब पैकेज में बिकने लगा, और आखिर क्यों किताबें नहीं आईं, मगर सज़ा जरूर आ गई। सत्ता से सज़ा तक की कहानियाँ, एक सच। कभी मुस्कराइए, कभी सोचिए क्योंकि यही है अफ़सर-ए-आ’ला
जहाँ हर रविवार शब्द नहीं, व्यवस्था की धूल उड़ती है।
यक्ष प्रश्न –
1 . “आबकारी नीति में अचानक आई यह ‘संस्कारित सुधार’ जनमत का नतीजा है या किसी ‘नीति-नायक’ की नई प्रयोगशाला का नमूना?”
2 . “बिजली के बिल में जनता झुलस रही है क्या अब सरकार को भी करंट लगेगा?”










