रायगढ़ में प्रस्तावित पुरुंगा भूमिगत कोयला खदान 2.25 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन क्षमता के साथ बनेगी ऊर्जा आत्मनिर्भर भारत की नई पहचान

00 पुरुंगा खदान से पर्यावरण और विकास के बीच मिलेगा संतुलन
00 खेती, जंगल और जलस्रोत रहेंगे सुरक्षित, सतह पर नहीं होगी खुदाई
00 ग्रामीणों को रोजगार और सामाजिक समृद्धि के नए अवसर
00 भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता यात्रा में छत्तीसगढ़ का बढ़ेगा योगदान
00 धरती की गहराई में ऊर्जा का नया अध्याय, सतह पर हरियाली जस की तस
रायगढ़/रायपुर। भारत आज ऊर्जा आत्मनिर्भरता की दिशा में निर्णायक दौर से गुजर रहा है। जब पूरी दुनिया संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय संकट से जूझ रही है, तब भारत ने विकास और संरक्षण के बीच संतुलन की एक नई राह खोजी है। इसी दृष्टि से भूमिगत खनन तकनीक अब ऊर्जा क्षेत्र का भविष्य बनकर उभर रही है। इस दिशा में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में प्रस्तावित पुरुंगा भूमिगत कोयला खदान देश के सतत विकास की एक महत्वपूर्ण मिसाल बनने जा रही है।
यह परियोजना 2.25 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन क्षमता के साथ विकसित की जा रही है। भारत सरकार के कोयला मंत्रालय का स्पष्ट दृष्टिकोण है कि भूमिगत खनन से न केवल ऊर्जा की जरूरतें पूरी होंगी बल्कि पर्यावरण, वन्यजीवन और सामाजिक संतुलन भी सुरक्षित रहेगा। मंत्रालय की हालिया प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, “भूमिगत खनन वह तकनीक है जो धरती की गहराई में जाकर संसाधन निकालती है, पर सतह पर हरियाली, खेती और जंगल को अक्षुण्ण रखती है।”
ऊर्जा का स्रोत, पर्यावरण का संरक्षण
पुरुंगा परियोजना का डिजाइन और तकनीकी ढांचा पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित है। खनन की प्रक्रिया 500 फीट से 2000 फीट की गहराई में होगी। सतह पर किसी प्रकार की खुदाई या विस्फोटक गतिविधि नहीं की जाएगी। इसका अर्थ यह है कि ऊपर की भूमि, खेत, पेड़-पौधे, वनोपज और ग्रामीण आवास किसी भी प्रकार के नुकसान से पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि भूमिगत खनन से कृषि भूमि की उर्वरता अप्रभावित रहती है और पारंपरिक फसलें पहले की तरह ही फलती-फूलती रहती हैं।
वन्य जीवन और जैव विविधता को सुरक्षा कवच
खनन से वन्यजीव प्रभावित होंगे, यह एक सामान्य आशंका होती है। लेकिन इस आधुनिक तकनीक में सतह पर मशीनरी, ट्रक या ब्लास्टिंग की जरूरत नहीं होती। इस कारण हाथी, हिरण, लोमड़ी, सियार और पक्षियों के प्राकृतिक आवास क्षेत्र में कोई व्यवधान नहीं आता। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि “भूमिगत खनन प्रक्रिया वन्यजीवों के आवास को बिना छेड़े धरती के भीतर ऊर्जा निकालने का सबसे सुरक्षित माध्यम है।”
धूल, शोर और प्रदूषण से राहत
ओपन कास्ट माइनिंग की तुलना में भूमिगत खनन पर्यावरणीय दृष्टि से कहीं अधिक अनुकूल है। इसमें धूल या कोल डस्ट सतह तक नहीं पहुंचता। आसपास के गाँवों और बस्तियों में वायु प्रदूषण, शोर और कंपन लगभग नगण्य हो जाते हैं। यही नहीं, खदान से निकलने वाले पानी को आधुनिक फिल्टरिंग सिस्टम से शुद्ध कर स्थानीय ग्रामवासियों के उपयोग के लिए उपलब्ध कराया जाएगा।
जलस्रोत और मृदा की गुणवत्ता रहेगी बरकरार
ग्रामीण इलाकों में ट्यूबवेल आमतौर पर 40 से 50 फीट गहराई तक ही होते हैं, जबकि कोयले का खनन 500 फीट या उससे अधिक गहराई में किया जाता है। इससे भूजल स्तर पर कोई असर नहीं पड़ता। भूमि की ऊपरी परत जस की तस रहने से मिट्टी की उर्वरता बरकरार रहती है और कृषि उत्पादन में कोई गिरावट नहीं आती। जल निकासी की हर प्रक्रिया वैज्ञानिक मानकों पर आधारित होगी ताकि जल संसाधनों का संरक्षण और पुनः उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
रोजगार और स्थानीय समृद्धि का नया द्वार
पुरुंगा खदान से स्थानीय युवाओं को रोजगार और प्रशिक्षण के अवसर मिलेंगे। इसके साथ ही सहायक उद्योगों जैसे परिवहन, मरम्मत, मशीनरी और सेवा क्षेत्र में भी नए अवसर खुलेंगे। स्थानीय ग्राम पंचायतों को भी परियोजना के सामाजिक दायित्व कार्यक्रमों के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और सड़क विकास जैसी सुविधाएँ प्राप्त होंगी।
विरोध नहीं, संवाद की आवश्यकता
कुछ वर्गों द्वारा भूमि अधिग्रहण और पर्यावरणीय प्रभाव को लेकर आशंकाएँ व्यक्त की जा रही हैं। परंतु विशेषज्ञों का मत है कि “भूमिगत खनन परियोजनाएँ सतही खनन की तुलना में कहीं अधिक पर्यावरण-अनुकूल और सामाजिक रूप से स्वीकार्य हैं।” इसलिए यह जरूरी है कि निर्णय भावनाओं या राजनीतिक बयानबाज़ी के बजाय तथ्यों और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर लिए जाएँ।
भारत की ऊर्जा यात्रा में छत्तीसगढ़ की भूमिका
छत्तीसगढ़ देश के कुल कोयला उत्पादन में लगभग 20 प्रतिशत का योगदान देता है। पुरुंगा परियोजना इस योगदान को नई ऊँचाइयों पर ले जाएगी। यह राज्य के औद्योगिक और ऊर्जा क्षेत्र को मजबूती देगी और आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य की ओर एक ठोस कदम होगी।
सतत विकास का भारतीय मॉडल
भूमिगत खनन का यह नया अध्याय यह साबित करता है कि विकास का रास्ता हमेशा प्रकृति से टकराव का नहीं बल्कि उसके साथ सामंजस्य का भी हो सकता है। कोयला मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के शब्दों में, “भूमिगत खनन भारत के ऊर्जा भविष्य का नया अध्याय है, जहाँ विकास और पर्यावरण दोनों समान गति से आगे बढ़ सकते हैं।”
पुरुंगा खदान जैसी परियोजनाएँ यह संदेश देती हैं कि धरती के भीतर छिपे संसाधनों का उपयोग बुद्धिमानी से किया जाए तो सतह पर हरियाली, जीवन और उम्मीदें कायम रह सकती हैं। यही भारत के विकास की असली पहचान है: विकास भी, हरियाली भी।

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