अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

1500 करोड़ का वायरल सच –
रायपुर के सिविल लाइंस थाने की एफआईआर नंबर 667/25 साधारण मामला नहीं है। इसे पुलिस वेबसाइट से छिपाया गया, केस सेंसिटिव बताया गया और आरोपियों के नाम तक सार्वजनिक नहीं किए गए। सवाल यही है आख़िर इसमें ऐसा क्या है कि सरकार से लेकर संगठन तक हलचल मच गई? यह कहानी एक वायरल वीडियो से शुरू होती है, जिसमें सत्ता, संगठन और पैसों की कथित बातचीत का दावा है आंकड़ा 1500 करोड़ का। वीडियो सामने आते ही रायपुर से दिल्ली तक फोन घनघनाने लगे। जांच में सबसे पहले सामने आए कुछ नाम, और फिर एक पीआर एजेंसी रणनीति मीडिया। वही एजेंसी जिसने 2023 चुनाव से पहले भाजपा के लिए काम किया था और सरकार बनने के बाद सत्ता के बेहद क़रीब मानी जाती थी। पुलिस ने इसी कड़ी में भाजपा दफ्तर से लैपटॉप उठाया, एक भाजपा परिवार से जुड़े युवक को गिरफ्तार किया और बाकी की तलाश जारी है। मामला अब सिर्फ़ फेक वीडियो का नहीं, बल्कि सत्ता–संगठन की अंदरूनी खींचतान, पीआर, पैसे और प्रभाव की जंग का बन चुका है। पार्टी के भीतर दो राय साफ़ हैं एक खेमा चुपचाप मामला दबाना चाहता है, दूसरा चाहता है कि साज़िश करने वाले बेनकाब हों। एफआईआर भले वेबसाइट से गायब हो, लेकिन सवाल ज़िंदा हैं और जवाब अभी बाकी।

चार्टर, कुर्सी और कृपा –
छत्तीसगढ़ का शासकीय चार्टर विमान एक दिन अचानक सतना की ओर उड़ चला। न कोई आपात सूचना, न कोई सार्वजनिक घोषणा बस विमान उड़ा। काग़ज़ों में दर्ज है कि उस उड़ान में मंत्री महोदय भी सवार थे। यानी सब कुछ पूरी तरह सरकारी। विमान सतना उतरा। मंत्री जी नीचे आए। हवाईपट्टी देखी,चार कदम चले, आसमान निहारा और फिर वही विमान पकड़कर रायपुर लौट आए। पूरा कार्यक्रम इतना छोटा कि अगर चाय मंगाई जाती,तो ठंडी होने से पहले यात्रा खत्म हो जाती। अब मज़ेदार हिस्सा शुरू होता है। मंत्री महोदय के उतरते-चढ़ते ही विमान में एक और यात्री सवार हो जाता है और फिर वही विमान सीधे रायपुर की ओर उड़ जाता है। मतलब विमान मंत्री को लेकर गया, बाबा को लेकर लौटा। बीच में आधा घंटा औपचारिकता का। नियमों की किताब कहती है किनशासकीय चार्टर विमान धार्मिक प्रचारकों के लिए नहीं होता। लेकिन नियमों की किताब अक्सर तभी खुलती है जब पढ़ने वाला चाहे। यहाँ किताब बंद रही, और जुगाड़ चालू। मंत्री महोदय यात्रा का कारण नहीं थे, यात्रा का कवर थे। काग़ज़ों में सरकारी दौरा, असल में आध्यात्मिक पिक-अप। अब कोई पूछे यह आरोप है क्या? नहीं साहब। यह तो वही कहानी है जो सरकारी फाइलें खुद बुदबुदा रही हैं। क्योंकि जब शासकीय विमान प्रवचन की डिलीवरी करने लगे, तो हँसी भी आती है और हिसाब भी माँगने का मन करता है। सरकार भक्ति से नहीं, नियम से चलती है और जब नियम रनवे छोड़कर आकाश में घूमने लगें, तो लोकतंत्र नीचे खड़ा टेकऑफ देखता रह जाता है।

वर्दी असुरक्षित –
बस्तर से रायगढ़ तक छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक ही तस्वीर उभर रही है वर्दी पर हमला। कभी विवाद सुलझाने पहुँची पुलिस पिट जाती है, कभी ट्रैफिक चेकिंग में जवानों से मारपीट होती है, तो कहीं थानों के बाहर ही बदसलूकी।
घटनाएँ अलग-अलग ज़िलों की हैं, लेकिन संकेत एक जैसे। बिलासपुर, दुर्ग-भिलाई, राजनांदगांव, कोरबा, रायपुर और बस्तर जगदलपुर हर जगह ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी हमले का सामना कर रहे हैं। इसका असर साफ़ दिखता है। पुलिस बल का मनोबल गिर रहा है, फील्ड ड्यूटी में संकोच बढ़ रहा है और अपराधियों के हौसले बेखौफ होते जा रहे हैं। स्थिति इसलिए भी गंभीर है क्योंकि बीते दस महीनों से राज्य में स्थायी डीजीपी नहीं है। नेतृत्वहीन व्यवस्था में न सख्त संदेश जाता है और न ही वर्दी का डर बचा है। सवाल सीधा है जब पुलिस ही सुरक्षित नहीं, तो जनता कितनी सुरक्षित है? क्योंकि जिस दिन वर्दी कमजोर पड़ती है, उस दिन कानून काग़ज़ों तक सिमट जाता है।

इजाज़त बनाम इंसाफ़ –
हर हफ्ते खबर आती है किसी पटवारी को 25 हज़ार लेते पकड़ा गया, किसी बाबू को 50 हज़ार के साथ रंगे हाथों। लेकिन इन्हीं खबरों के बीच एक सवाल दब जाता है क्या भ्रष्टाचार सिर्फ़ 25-50 हज़ार तक ही सीमित है? देश में घोटाले बड़े हैं, नीतियों से जुड़े फ़ैसले हैं, और करोड़ों की फाइलें हैं। फिर भी बड़े मामलों में जांच अक्सर शुरू होने से पहले ही रुक जाती है। इस ठहराव की वजह है भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A , 2018 में जोड़ी गई इस धारा के अनुसार, अगर आरोप अधिकारी के आधिकारिक काम से जुड़ा है, तो जांच से पहले सरकार की अनुमति ज़रूरी है। यानी पहले इजाज़त, फिर जांच। 25-50 हज़ार की रिश्वत सीधी मांग और सीधी पकड़ में आती है, इसलिए वहां कार्रवाई तुरंत होती है। लेकिन जैसे ही मामला नीतिगत फैसलों और ऊपर तक पहुँची फाइलों से जुड़ता है, वहीं कानून एक दीवार बन जाता है। क्योंकि जांच की अनुमति उसी सिस्टम से माँगी जाती है जिस पर सवाल हैं। यही वजह है कि छोटे मामले सुर्ख़ियों में होते हैं और बड़े मामले फाइलों में। यह कोई आरोप नहीं, कानून में दर्ज एक सच्चाई है। क्योंकि जब जांच से पहले इजाज़त ज़रूरी हो, तो इंसाफ़ अक्सर रास्ते में ही रुक जाता है।

नए पैंतरे –
25–50 हज़ार की गिरफ्त से जब बात नहीं बनती, तो साहेब नए-नए पैंतरे आज़माते हैं। क्योंकि सिस्टम में मनीराम का जुगाड़ रुकना नहीं चाहिए। बताया जाता है कि राजस्व विभाग की एक ट्राइब्स महिला अधिकारी पर जांच एजेंसी ने अपराध दर्ज किया था। मामला दर्ज होते ही काग़ज़ों से ज़्यादा दबाव शुरू हुआ। सूत्रों के अनुसार, जांच के मुखिया साहब उन्हें बार-बार बुलाते रहे, जहाँ पूछताछ कम और प्रताड़ना ज़्यादा , कहते हैं केस रफ़ा-दफ़ा करने का रास्ता भी बताया गया। क़ीमत? थी करीब एक करोड़ रुपये। अब सवाल सीधा है। एक पटवारी या आरआई इतनी बड़ी रकम कहाँ से लाए? यहीं से कहानी 25-50 हज़ार की दुनिया से निकलकर करोड़ों की दहलीज़ पर पहुँच जाती है। बताया जाता है कि महिला अधिकारी ने इस दबाव के ख़िलाफ़ क़ानून का दरवाज़ा खटखटाया। मामला कोर्ट पहुँचा और वहाँ से स्टे मिल गया। यानी पहली बार पैंतरे पर कानून भारी पड़ा। लेकिन यह सवाल अब भी बाकी है अगर कोर्ट न होती, तो क्या यह मामला भी 25-50 हज़ार की तरह किसी फाइल में दबा दिया जाता? क्योंकि जब छोटे केसों से पेट नहीं भरता, तो सिस्टम बड़े शिकार की तलाश में निकलता है। और तब भ्रष्टाचार का आंकड़ा नहीं, उसकी भूख सबसे बड़ा सच बन जाती है।

नाम नहीं, मौन –
छत्तीसगढ़ पुलिस की ताज़ा ट्रांसफर सूची कोई साधारण आदेश नहीं, बल्कि ऐसा दस्तावेज़ है जिसमें जितना लिखा है, उससे ज़्यादा नहीं लिखा गया है। करीब साठ अधिकारियों के नाम, पद, बैच और नई कुर्सियाँ दर्ज हैं। लेकिन तीन जगह बैच कॉलम अचानक खाली है। यह भूल नहीं लगती, यह पहचान लगती है। सूची का अंत भी चुपचाप बहुत कुछ कहता है। एक पोस्टिंग काग़ज़ों में सामान्य है, लेकिन उसके साथ जुड़ा इतिहास असामान्य। नक्सल प्रभावित सुकमा में तैनात अधिकारी, जिसे फोर्स मूवमेंट और अभियान की ज़िम्मेदारी थी, वह महीनों राजधानी में रहा लिखित आदेश के बिना, मौखिक सहमति के साथ। यह सवाल छुट्टी का नहीं, उस सिस्टम का है जहाँ मौखिक आदेश लिखित आदेश से भारी हो जाता है।
पुलिस बल में अनुशासन फाइलों में दर्ज है, लेकिन कुछ मामलों में वही फाइलें सबसे ज़्यादा चुप रहती हैं। सीबीआई की जांच, महादेव ऐप और कथित लेन-देन दस्तावेज़ों में दर्ज हैं, लेकिन ट्रांसफर सूची में सब कुछ शांत है। और यही शांति असली शोर है। सरकार बदली, सत्ता बदली, लेकिन कुछ नामों के लिए निर्णय की भाषा अब भी वही है। क्योंकि व्यवस्था में सबसे सुरक्षित पद वही होता है जो काग़ज़ों से बाहर तय होता है।

छत्तीसगढ़ में दिक्कत सिस्टम की नहीं, चयन की है। नियम हैं, लेकिन सुविधा वालों के लिए। जांच है, लेकिन इजाज़त के बाद। 1500 करोड़ का वायरल वीडियो इसी चयनित व्यवस्था का आईना है जहाँ एफआईआर छुपती है, नाम गायब रहते हैं और जांच केस सेंसिटिव बनकर पर्दे में चली जाती है। कुर्सी बची रहती है, कवर चलता रहता है, और कानून अक्सर इंतज़ार करता रह जाता है। यही अफ़सर-ए-आ’ला की असली कहानी है।

यक्ष प्रश्न – 

1 – छत्तीसगढ के लिए क्या जनवरी महीना निर्णायक हो सकता है या फरवरी तक इंतजार करना होगा ? 

2 – जांच एजेंसी के एक बड़े साहब रोज बोलते है दिल्ली जाऊंगा आखिर साहेब जाएंगे कब?

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