अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
फरमान कहाँ से आता है –
प्रदेश की भाजपा सरकार बीते दो सालों से खुद को सुशासन की सरकार बताती रही है, लेकिन अब सवाल सत्ता के गलियारों से निकलकर आम आदमी की ज़ुबान तक आ गया है आख़िर सरकार चला कौन रहा है? मंत्रालय में फैसले होते दिखते हैं, पर फरमान कहीं और से आते महसूस होते हैं। नए-नवेले मंत्रियों को दो साल बाद भी यह स्पष्ट नहीं कि निर्णय लेने की सीमा कहाँ खत्म होती है। मुखिया साहब संवेदनशील मुद्दों पर संयम नहीं, चुप्पी ओढ़े नज़र आते हैं। भीतरखाने लगातार चर्चा है कि सत्ता के असली रत्न सदन में नहीं, सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठे हैं। एक ऐसा चेहरा, जो कभी रमन राज में ताक़त का केंद्र था और आज कॉरपोरेट साम्राज्य की ऊँची कुर्सी पर है।
कहा जाता है, उसी दौर की छाया आज भी प्रदेश पर है। अधिकारी छांट-छांट कर भेजे गए हैं, जो फाइल नहीं देखते, इशारों का इंतज़ार करते हैं। जिनकी मर्ज़ी के बिना न विभाग हिलता है, न योजना सरकती है। सरकार दिखती राजधानी में है, लेकिन सत्ता की धड़कन कहीं और सुनाई देती है। और इसी वजह से प्रदेश पूछ रहा है राज्य चल रहा है… या चलाया जा रहा है?
यू-टर्न सरकार –
दो साल की सरकार में प्रदेश आज एक अजीब दौर से गुजर रहा है। चारों तरफ़ इंकम्बेंसी का माहौल है, और हैरानी यह कि सरकार खुद भी नहीं समझ पा रही कि अचानक हो क्या रहा है। फैसले लिए जाते हैं, ढोल पीटे जाते हैं, और फिर जनदबाव के सामने यू-टर्न लेना पड़ता है। पहले बिजली बिल की राहत बंद की गई, सूर्य घर योजना को ऐसे पेश किया गया मानो हर छत पर कल ही सोलर लग जाएगा। नतीजा सड़क से सोशल मीडिया तक गुस्सा, किरकिरी और अंततः फैसला वापस। फिर आई ज़मीन की नई गाइडलाइन और बढ़ा हुआ रजिस्ट्री शुल्क। छोटा व्यापारी, मध्यम वर्ग, घर खरीदने वाला सब सड़क पर आ गया। राजधानी तक छीटाक़सी हुई और सरकार यहाँ भी बैकफुट पर गई। सवाल अब फैसलों का नहीं, उस सोच का है जो ऐसे अजीबो-गरीब फैसलों की सलाह दे रही है। क्या यह नीतिगत भ्रम है, या भीतर से सरकार को अस्थिर करने की कोई अदृश्य चाल? यू-टर्न की यह राजनीति सरकार को कमजोर दिखाती है और विपक्ष को बिना मेहनत मुद्दे थमा देती है। अब असली सवाल यह है फैसले बना कौन रहा है?
दिल्ली संदेश –
अमित शाह का एक महीने में दूसरा बस्तर दौरा
सिर्फ़ नक्सलवाद पर बयान नहीं, राज्य सरकार पर सवाल भी है। 31 मार्च 2026 तक नक्सलमुक्त भारत की डेडलाइन भीतरखाने यह पूछने को मजबूर करती है यह भरोसे का संकेत है या अधूरे भरोसे की भरपाई? सूत्र बताते हैं कि केंद्र अब बस्तर को लेकर सिर्फ़ रिपोर्टों पर नहीं, मौजूदगी से नियंत्रण चाहता है। यानी दिल्ली खुद मैदान में है। गलियारों में यह भी चर्चा है कि अगर सब कुछ राज्य के नियंत्रण में होता, तो केंद्रीय गृह मंत्री को बार बार बस्तर आने की ज़रूरत नहीं पड़ती। संदेश साफ़ है नक्सल और विकास जैसे संवेदनशील मुद्दों पर केंद्र अब राज्य के प्रतिनिधियों के भरोसे छोड़ने के मूड में नहीं। विकास के बड़े वादे और आदिवासी संभाग का सपना दरअसल राज्य सरकार की कार्यशैली पर एक तरह की राजनीतिक ऑडिट है। शाह का बार बार आना यह संकेत देता है या तो ज़मीन पर काम पीछे है, या फिर दिल्ली अब क्रेडिट खुद लेना चाहती है। बस्तर अब सिर्फ़ नक्सलवाद नहीं, केंद्र राज्य भरोसे की परीक्षा बन चुका है।
कागज का खेल
छत्तीसगढ़ पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा कागज खरीदी के लिए हाईकोर्ट में केविएट लगाना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। आख़िर ऐसा क्या है कि सरकार को पहले से डर है कि यह मामला कोर्ट पहुँच सकता है? कागज जैसी सामान्य खरीदी में जब री-टेंडर, कठोर स्पेसिफिकेशन और अब केविएट की नौबत आए, तो इसे संयोग कहना मुश्किल है। सरकार मानो खुद मान रही है कि कोई न कोई इस प्रक्रिया से असंतुष्ट है। या बाहर किया गया है। या भीतर कुछ ऐसा है जो खुलकर सामने आ सकता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब देश के कई राज्य सीधे किताब खरीद रहे हैं, तो छत्तीसगढ़ अब भी कागज के जाल में क्यों फंसा है? कागज लो, छपाई करो, बाइंडिंग कराओ, फिर सप्लाई हर कदम पर विवाद और देरी की संभावना। नतीजा वही पुराना बच्चों को किताब देर से, सरकार को सफाई ज़्यादा।
केविएट बताता है कि सरकार को प्रक्रिया पर पूरा भरोसा नहीं है। और जब भरोसा नहीं होता, तो अदालत की चौखट पहले से नज़र आने लगती है। यह सवाल अब सिर्फ कागज खरीदी का नहीं, नियत और नीति का है। कहीं ऐसा तो नहीं कि किताबों से ज़्यादा कागज के खेल में कुछ और लिखा जा रहा है?
डिग्री अंधकार
छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा आज सवालों के कटघरे में नहीं, बल्कि असफलता के प्रमाणपत्र के साथ खड़ी है। यहाँ विश्वविद्यालय ज्ञान के केंद्र नहीं, प्रभारियों के भरोसे चलने वाले दफ्तर बन चुके हैं। सालों से कुलपति नियुक्त नहीं, कुलसचिव जैसे प्रशासनिक पदों को नियम ताक पर रखकर बाँटा जा रहा है। प्राध्यापक भर्ती की बात करें तो तस्वीर और भयावह है। 2022–23 की भर्ती प्रक्रियाएँ आज भी अधर में लटकी हैं, बीच रास्ते नियम बदले जा रहे हैं, विज्ञापन संशोधित हो रहे हैं, मानो विभाग खुद नहीं जानता कि भर्ती किस कानून से करनी है। जो पढ़ाना चाहिए, वह पढ़ा नहीं पा रहा, और जो पढ़ नहीं पा रहा, वही सिस्टम चला रहा है। निजी विश्वविद्यालयों पर निगरानी का हाल यह है कि डिग्रियाँ ज्ञान की नहीं, दाम की शर्त पर मिल रही हैं। विनियामक आयोग नाम का बोर्ड है, लेकिन वह बोर्ड नहीं केवल नामपट्टी है। उच्च शिक्षा विभाग की सबसे बड़ी विफलता यह है कि यह शिक्षा को नीति नहीं, पदस्थापना का खेल समझ बैठा है। जहाँ विद्वानों से विमर्श नहीं, वहाँ शिक्षा का भविष्य सिर्फ अंधकार ही होता है। आज छत्तीसगढ़ में सवाल यह नहीं कि शिक्षा क्यों गिर रही है सवाल यह है कि उच्च शिक्षा विभाग इसे उठाने की कोशिश भी क्यों नहीं कर रहा?
छत्तीसगढ़ आज सुशासन के नारों और अव्यवस्था की हकीकत के बीच फँसा खड़ा है। कहीं फरमान बाहर से आ रहे हैं, कहीं फैसले यू-टर्न ले रहे हैं, कहीं दिल्ली निगरानी कर रही है, तो कहीं कागज़ और डिग्रियाँ खुद सवाल बन चुकी हैं। सत्ता, प्रशासन और शिक्षा तीनों अपने मूल उद्देश्य से भटके हुए दिखते हैं। यह संकट किसी एक विभाग या फैसले का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की दिशा और नीयत का है। और जब शासन जवाब देने से ज़्यादा चुप्पी साध ले, तब सवाल खुद ही सबसे बड़ा फैसला बन जाते हैं।
यक्ष प्रश्न –
1. जो कहानी परोसी जा रही है, उसमें कल्पना कितनी है और सच्चाई कितनी और फैसला करने वाला कौन है?
2. बस्तर ओलंपिक के समापन में एक मंत्री का नाम लेकर यह कहना कि ‘मैं उनके बुलावे पर आया हूँ यह प्रशासनिक मर्यादा है या सत्ता के केंद्रीकरण का सार्वजनिक संकेत?








