अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
सीमेंट का धंधा –
छत्तीसगढ़ में सीमेंट फैक्ट्रियों का खेल कोई आम कारोबार नहीं, पूरा रेगुलराइज्ड कलेक्शन मॉडल था जहाँ सरकार बनते ही महीने का 10 करोड़ फिक्स रेट तय कर दिया गया था।फैक्ट्रियाँ चुप, सिस्टम खुश, खज़ाना चलता रहा। फिर एक दिन कुछ बड़े कारोबारी ऊपर वाले दफ्तर तक पहुँचे और बोले 10 करोड़ ठीक था, पर ये अतिरिक्त 5 करोड़ भारी पड़ रहा है, कृपया इसे रोक दीजिए। सूत्रों का कहना है ऊपर का 10 करोड़ आधिकारिक था, उसके ऊपर का 5 करोड़ किसी साहेब का निजी टॉप-अप। और वह भी हाउस का आदेश बताकर। कहानी यहीं से तीखी होती है जब वसूले गए पैसे की गणना घर पहुंची, तो साहेब और उनकी पत्नी में बवाल खड़ा हो गया। पत्नी ने सवाल दाग दिया ये तो तुम कहते थे हमारा है, अब अचानक किसके लिए ले जा रहे हो? साहेब बेचारे समझाते ही रह गए ऊपर को देना पड़ेगा। घर ने इंकार कर दिया। और सीमेंट के धंधे ने घर की दीवारों पर पहली मोटी दरार डाल दी। उधर दूसरी तरफ फैक्ट्रियों से आने वाली रकम 10 से बढ़कर 15,और फिर सीज़न आते-आते कई गुना बढ़ गई। अंदरखाने चर्चा है कि अतिरिक्त रकम सीधे कलेक्शन टीम की जेब में जाता था, नतीजा? पैसा बढ़ा, सिस्टम बिगड़ा,और घर में तकरार की दीवार ऊँची होती गई। निचोड़ बस इतना सीमेंट का धंधा इमारतें जोड़ता है, लेकिन इस बार इसी धंधे ने एक पूरे घर की नींव हिला दी।
बिहार की बयार –
बिहार में एनडीए की जीत ने दिल्ली में ऐसा झोंका मारा है जैसे ठंडा पड़ा पॉलिटिकल इन्वर्टर अचानक टर्बो मोड में चला गया हो। चेहरे चमक उठे, बयान तेज हुए, और केंद्रीय नेतृत्व की चाल पुरानी फुर्ती से भर गई। लेकिन इसी चमक के बीच छत्तीसगढ़ का मौसम कुछ ज़्यादा ही संकेत देने लगा है वो बदलाव वाली फाइल… क्या फिर से मेज पर आ गई? गपशप तेज़ है कि कहीं फिर वही गुजरात मॉडल न उतर आए कि सुबह-सुबह पूरा मंत्रिमंडल लाइन में खड़ा और आवाज़ आये लो भैया, इस्तीफा पकड़ो! मुख्यमंत्री की कुर्सी तक को लेकर लोग अनुमान लगा रहे कहीं इस बार कुर्सी का पत्ता ही न पलट जाए? सरकार के दो साल में इंकबेंसी ऐसे चिपकी है जैसे सफेद कमीज़ पर पुराना हल्दी का दाग न हटता है, न छिपता है। कानून-व्यवस्था और अफसरशाही, दोनों जगह सुधार से ज़्यादा नई समस्याओं का नया स्टॉक आ रहा है। भ्रष्टाचार तो विभागों में मानो प्रतियोगिता बन चुका है कौन सबसे रचनात्मक घोटाला कर सकता है? सर्वे का व्यंग्य और तीखा आज चुनाव हो जाए तो दहाई छूना ही उपलब्धि। मतलब आरती की थाली घूम चुकी है, पर दिया हवा में बुझ चुका है। अब राजधानी में बस एक ही कानाफूसी किसका नंबर? कब? कितना बड़ा बदलाव? और राजनीति की पुरानी सीख फिर याद आई तूफान शोर से नहीं, खामोशी से पहले आता है। और छत्तीसगढ़ में यही खामोशी सबसे ज़्यादा गूंज रही है।
दाल में नमक कम, पर राजनीति में मसाला ज्यादा
हिड़मा की माँ के घर मंत्रीजी का भोजन… ये मानवीय पहल कम, और सियासी सिग्नल ज़्यादा था। थाली में दाल कम थी, पर राजनीति की परतें मोटी थीं। पूरा संदेश दिल्ली को भेजा गया देखो, बस्तर मेरा है। जंगल, जनता, जज़्बात सब मेरी पकड़ में। यानि बस्तर में भोजन, और दिल्ली में प्रोमोशन का तड़का। भीतरखाने का विश्लेषण साफ है बस्तर में फोटो-ऑप, केंद्र में क्रेडिट-ऑप, और मैदान में कानून-व्यवस्था धड़ाम। हिड़मा की माँ की थाली पर झुका दृश्य इसलिए बड़ा था, क्योंकि बस्तर का सबसे बड़ा नाम और सरकार का सबसे बड़ा विभाग एक मंच पर आकर एक ही संदेश दे रहे थे ये इलाका मेरी राजनीतिक स्क्रिप्ट का है। पर हकीकत उलटी जंगल राजनीति से भरा है, और मैदान अपराध से। जनता का तंज भी सीधी मंत्रीजी, हिड़मा छोड़िए… पहले मैदानी अपराधी तो पकड़िए।”
जहाँ फाइल आधी रात गायब हो जाती है –
पुलिस महकमे में इस समय खिचड़ी ऐसी पक रही है जिसका स्वाद नहीं, बस धुआँ ही धुआँ नजर आ रहा है। मामला कोई भी उठे पहले धमाका, फिर बहस, और फिर फाइल ऐसे गायब जैसे किसी ने डिलीट बटन दबा दिया हो।
ताज़ी मिसाल डाँगी प्रकरण। शोर-शराबे के बाद चंदखुरी भेज दिया गया। फिर जैसे ही शोर उतरा,साहब को सीधे नारकोटिक्स में ताकतवर कुर्सी दे दी गई। किस सौदे में? कौन-सी डील? जवाब महकमे की चुप्पी। इसके बाद आता है माहेश्वरी का भूत, जो मौक़ा-बेमौक़ा बाहर आता है मेरा अभिषेक हुआ क्या? और विरोध जितना बढ़ता है, फाइल उतनी जल्दी धुँध में गायब। एक है शेख साहब, जो हर कहानी के स्क्रिप्ट राइटर माने जाते हैं, वे छुट्टी पर ऐसे गुम हैं जैसे सीरीज़ के लीड एक्टर्स अचानक ब्रेक ले लेते हों। पर हर कहानी की डोर उनके पास ही जाकर फँसती है। इतना ही नही जेलों की कहानी भी धुंधली है हर प्रकरण में पहले भारी शोर, फिर शांत अंधेरा। जेल सुधरी या बिगड़ी किसी को पता नहीं। लेकिन मीनू गुप्ता का जलवा बरकरार है। अब आता है सीबीआई और आईपीएस प्रकरण जिसमे जितना शोर उठा था, आज उतना ही सन्नाटा है। सवाल हवा में उठते हैं और बिना आवाज़ लौट आते हैं। पूरा महकमा ऐसा लग रहा है जैसे एक ही स्टूडियो में कई सीरियल शूट हो रहे हों किरदार बदलते हैं, स्क्रिप्ट वही रहती है।
स्क्रिप्टेड गिरफ्तारी –
रूबी तोमर की गिरफ्तारी रायपुर की सबसे फिल्मी कहानी है। यह अपराध का केस कम, सहारे, संरक्षण और सही समय पर स्क्रिप्ट बदलने की मिसाल है। छह महीने तक आरोपी ऐसे गायब रहा जैसे किसी पुराने भारीभरकम दरबार की छतरी में बैठा हो। अदालत पुकारती रही, और पुलिस का एकमात्र जवाब कोई जानकारी नहीं। पर जैसे ही राजधानी की हवा बदली, फाइलें गरम हुईं, अदालत सख्त हुई वैसे ही वह पुरानी छतरी हल्की पड़ गई। और तभी रूबी तोमर अचानक ग्वालियर में ट्रेस हो गया। न लुकआउट नोटिस, न बड़े ऑपरेशन बस लोकेशन अपने-आप खुल गई। फिर शुरू हुई पुलिसिया बारात बनियान में जुलूस, कैमरे, बाइट जैसे गिरफ्तारी नहीं, किसी नए टीवी शो का टीज़र हो। पर रायपुर जानता है कोई आरोपी आधा साल तब तक नहीं गायब रहता जब तक उसे गायब रखने वाला हाथ न हो। और कोई अचानक तभी दिखता है जब वही हाथ पीछे हट जाए।
चुटियाधारी बनिया –
रूबी तोमर अकेला नहीं था। राजधानी में एक दूसरा नाम है जो इन दिनों हर चौराहे पर पोस्टरों में चमक रहा है मुख्यमंत्री, डिप्टी सीएम और बड़े नेताओं के बीच बिल्कुल सेंटर में खड़ा चुटियाधारी बनिया। जमीन, प्लॉट, कब्ज़ा, सौदा इसका पूरा मॉडल एक ही फार्मूला पर चलता है राज्य को निचोड़ो, और कथा-सत्संग की आड़ में पैसा सफेद करो। अब जहाँ कथा होनी थी, वहाँ वसूली हो रही , जहाँ भक्त होने थे, वहाँ रेट कार्ड और जहाँ पुलिस होनी थी वहाँ फोटो-सेशन। सरकार के जिम्मेदार लोग इसके साथ फोटो ऐसे खिंचाते हैं मानो किसी उद्योगपति के साथ खड़े हों। असलियत यह वही किरदार है जो धर्म को कारोबार, अराजकता को अवसर, और सत्ता को सुरक्षा कवच की तरह पहनता है। उसका हालिया बयान मेरे सामने नेता-विधायक कुछ नहीं लगते यह सिर्फ अहंकार नहीं, शासन की कमजोरी का प्रमाण है। दरअसल माफिया खुद नहीं बढ़ते बढ़ाए जाते हैं। यह भी सत्ता की गोद में पलकर
पोस्टरों से उठकर सीधे सत्ता के दरवाजों तक पहुँच गया है। और आज रायपुर का फुसफुसाहटिया सच चुटियाधारी बनिया मॉडल अब पूरे राज्य में फैल चुका है।
मृतका घोटाला –
राजधानी रायपुर में जमीन का ऐसा घोटाला सामने आया है, जिसने पूरे सिस्टम की मिलीभगत की पोल खोल दी है। कहानी चमारिन बाई सोनकर से शुरू होती है एक महिला जिसकी मौत 1980 में हो चुकी थी, लेकिन कागज़ों में उन्हें दोबारा ज़िंदा कर दी जाती है यह कोई चमत्कार नहीं, यह काम किया रायपुर के चर्चित जमीन माफिया गुरूचरण होरा ने वही नाम जो पिछले शासन में खूब पनपा और आज भी उतनी ही बेखौफ़ी से जमीन कारोबार का अघोषित संचालक बना हुआ है। जमीन हड़पने का तरीका भी उतना ही चालाक मृतका की जगह एक नकली महिला तैयार की गई, नाम रखा गया निर्मला सोनकर। सरनेम मैच होते ही मुख्तियारनामा, पहचान पत्र और दस्तावेज़ तुरन्त तैयार, और मृतका की जमीन कानूनी रूप से बेच दी गई। मामला तब खुला जब सिविल लाइन्स थाने में FIR 0492/2025 दर्ज हुई 420, 467, 468, 471, 500 जैसी गंभीर धाराओं के साथ। पर राजधानी की पुरानी कहानी वही FIR तो है, गिरफ्तारी अब तक नहीं। दस्तावेज़ फर्जी, महिला नकली, जमीन मृतका की फिर भी पुलिस सिर्फ कार्यवाही जारी है कहकर बच रही है। सवाल सीधा है एक मरी हुई महिला को ज़िंदा कर दिया गया, लेकिन ज़िंदा माफिया अभी तक कैसे आज़ाद घूम रहा है? गुरूचरण होरा कोई साधारण दलाल नहीं यह पूरी जमीन मंडी है, जिसकी ताकत जमीन नहीं,राजनीतिक संरक्षण है। जमीन मर सकती है, मालिक मर सकता है, दस्तावेज़ मर सकते हैं… पर माफिया तब तक नहीं मरता जब तक सत्ता की छतरी उसके सिर पर है।
अफ़सर-ए-आ’ला का 41वाँ अंक में पढिये –
सिस्टम बीमार नहीं, लक्षणों के पीछे छुपा सच बीमार है। बदलाव की सुगबुगाहट तेज़ है, पर माफियाओं की पकड़ उससे भी तेज़।पुलिस की फाइलों पर खामोशी जमकर बैठ गई है। और सत्ता की थाली में दाल से ज़्यादा राजनीति परोसी जा रही है। राजनीति की तंग गलियों से लेकर जमीन-माफियाओं की अंधेरी दुकानों तक यह संस्करण पूरा राज्य एक ही फ्रेम में दिखाता है।
यक्ष प्रश्न –
1 . उस ज़िला कलेक्टर का नाम बताइए जो पर्यावरण का माखन निकालकर राजधानी में अवार्ड लेने जाती है, और ज़िले में पटवारी से लेकर परियोजना तक हर फाइल में लेनदेन की चिंगारी सुलगाए बैठी है?
2 . छत्तीसगढ़ में वह कौन-सा विभाग है जहाँ मंत्री की बातचीत की कीमत 1 इंच भी नहीं,
और असली हुकुम अफसरों की जेब से निकलता है?









