अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
लोरिक–चंदा : –
इस दुनिया में प्रेम के किस्से कभी खत्म नहीं हुए फरहाद ने पहाड़ काटा, मजनूं ने रेगिस्तान नापा, और लोरिक ने जंगलों में प्रेम की गाथा लिखी। हर कहानी में एक नायक होता है, एक नायिका, और एक समाज जो प्रेम को हमेशा गुनाह की तरह तौलता है। छत्तीसगढ़ की मिट्टी ने भी ऐसा ही एक किस्सा देखा। बस फर्क इतना था यहाँ बाँसुरी नहीं, बैठकें बजती थीं चंदा नहीं, एक अफसरनी थी और लोरिक कोई गोला वीर नहीं, बल्कि राज्य का मुखिया था।
कहानी शुरू हुई फाइलों के बीच जहाँ सर और मैडम के शब्द धीरे-धीरे आदेश से अपनापन बन गए। फिर जो आदेश निकले, वो प्रेमपत्र जैसे लगे, और जो गोपनीय फाइलें थीं, वो भावनाओं के मसौदे। सत्ता की ऊँचाई, विश्वास की गहराई और लालच की परछाई तीनों ने इस प्रेम को सत्ता का सबसे खूबसूरत छलावा बना दिया। कहते हैं, इस रिश्ते ने ब्लैकमेलिंग से सुपर पावर बनने तक का सफ़र तय किया। राजधानी में आज भी फुसफुसाहट है वो प्रेम नहीं था, वो शासन का सबसे रोमांटिक घोटाला था। मगर मुखिया की चुप्पी अब तक नहीं टूटी। न कोई जांच हुई, न कोई इकरार बस सत्ता के महल में मौन ही मुखपत्र बन गया। इतिहास ने बस एक पंक्ति लिखी –
जब प्रेम शासन से टकराता है,
तो या तो राज्य डूबता है, या इंसान।
जब दिन और रात एक हो गए : –
उसी समय की बात है जब प्रकृति के सारे नियम ही बदल गए थे। इस धरती पर सूर्य और चंद्रमा दोनों का मिलन हो गया , वो भी कोरबा की मिट्टी में। जो प्रेम सिर्फ दिलों में नहीं,फाइलों और फंडों में भी दर्ज हो गया। एक ओर था तेज़स्वी प्रभावशाली सूर्य जो हर विभाग की डोर पकड़े हुए था। दूसरी ओर थी चाँदनी पद, शक्ति और मोहकता का संगम। दोनों की जुगलबंदी ऐसी चली कि प्रेम से शुरू होकर प्रोजेक्ट पर खत्म हुई। कहा जाता है, ठेके और ट्रांसफर अब मीटिंग में नहीं, मुलाकातों में तय होते थे। देखते ही देखते प्रेम की डोर से एक साम्राज्य खड़ा हो गया जहाँ हर आदेश में भावना और हर वसूली में लगाव झलकता था।
मगर प्रकृति को संतुलन पसंद है और जब दिन और रात एक हो गए, तो ग्रहण लगना तय था। गिरफ्तारी के दिन दोनों साथ पकड़े गए, और सत्ता के आँगन में बस यही कहा गया –
प्रेम और भ्रष्टाचार में फर्क बस इतना है –
एक दिल जीतता है, दूसरा सब कुछ गंवा देता है।
मनकु राम से मिक्की तक : –
अफसरशाही में सबसे गोपनीय चीज़ फाइल नहीं, फीलिंग्स होती हैं। डांगी प्रकरण कोई नई कहानी नहीं यह तो उसी परंपरा का नया अध्याय है, जो राज्य के जन्म के साथ ही शुरू हो गया था। छत्तीसगढ़ की प्रशासनिक डायरी में कई ऐसे प्रसंग दर्ज हैं, जहाँ पद और प्रेम के बीच की रेखा धुँधली पड़ गई। कहते हैं पद जितना ऊँचा होता है, खामोशी उतनी गहरी बिछाई जाती है। सबसे पहले याद आता है स्वर्गीय मनकु राम सारथी प्रकरण, जहाँ तत्कालीन कलेक्टर पर यौन शोषण का आरोप लगा। निचली अदालत ने सात साल की सज़ा सुनाई यह छत्तीसगढ़ का पहला फैसला था, जहाँ फाइल बंद नहीं, फैसला सुनाया गया। फिर आया मिक्की मेहता अध्याय प्रेम, छल और पद की त्रासदी। मंदिर में विवाह, एक बच्ची का जन्म, और फिर वही क्लासिक अंत रहस्य, मौन और मौत। मिक्की की कहानी आज भी उन फाइलों में बंद है जहाँ सच्चाई पर ताला है और पद पर सलामी। इसके बाद आया एक शेख चिल्ली साहब का ज़िक्र जिनके प्रेम अध्याय एक महिला सब-इंस्पेक्टर से जुड़े बताए गए। मामला इतना संवेदनशील था कि रिपोर्ट से ज़्यादा संवेदना दिखाई गई ना जांच, ना कार्रवाई बस तबादला और पदोन्नति। इन तीनों कहानियों ने साबित किया छत्तीसगढ़ की अफसरशाही में गोपनीय रिपोर्ट से भी ज़्यादा गोपनीय रिश्ते पलते हैं। जहाँ आरोप हवा में उड़ते हैं, और परिणाम फाइलों में दम तोड़ देते हैं।
अंग्रेज़ी की क्लास : –
रमन राज के दिनों में राजधानी की हवा बदली हुई थी। अफसरों के चेहरों पर सत्ता की ताजगी और कंधों पर फाइलों का बोझ दोनों साथ थे। उन्हीं दिनों सचिवालय की सीढ़ियाँ रोज़ एक ऐसा शख़्स चढ़ता था जिसकी चाल में अनुशासन और मुस्कान में अनुच्छेदों से परे की बात थी। साहब उस दौर के सबसे ईमानदार, सख्त और चर्चित प्रशासनिक मुखिया माने जाते थे। उनकी फाइल से जो शब्द निकलता, वो आदेश नहीं निर्णय होता था। अफसर डरते थे, मंत्री झुकते थे, पर जनता उन पर भरोसा करती थी। मगर कहते हैं, लोहे के दरवाज़े भी कभी-कभी मन की हवा से खुल जाते हैं। एक जनसंपर्क कार्यक्रम में साहब की नज़र ठिठकी, और वहीं से शुरू हुई उनकी अंग्रेज़ी क्लास। शाम ढले बंगले की रोशनी में जो लेक्चर चलते, वो दरअसल व्याकरण नहीं, भावना का विषय थे। फिर योग्यता की परिभाषा भी बदल गई जो साहब को पसंद आ जाए, वही इंटरव्यू के योग्य। और हुआ भी यही। सचिवालय के उस पार एक नया बंगला बना, साहब के बंगले से सटा हुआ अंग्रेज़ी सुधारने की सुविधा के साथ। साहब रंगीन थे, पर बदनाम नहीं। ईमानदारी उनकी ऐसी कि बोलने वाले अपनी फ़ाइल खुद बंद कर देते। एक पुराने बाबू अब भी कहते हैं साहब ने राज्य को प्रशासन दिया, और कुछ को प्रमोशन। जब वो रिटायर हुए, तो सचिवालय की दीवारों ने धीमे से कहा – इतिहास का सबसे ईमानदार आदमी वही था…बस अंग्रेज़ी की क्लास थोड़ी ज़्यादा लंबी चल गई थी।
विषकन्या से प्रेमकन्या तक : –
कभी एक दौर था जब विषकन्याएँ पालकर रखी जाती थीं राजाओं की नीति में उनका काम था मुस्कान से मोहित करना, और उसी मुस्कान में ज़हर घोल देना। वे साम्राज्य तलवार से नहीं, स्पर्श से गिरा देती थीं। समय बदला, शासन बदला, पर ज़हर की रासायनिक रचना वही रही बस अब वो प्रेमकन्या बन गई है। ना खंजर, ना कटार सिर्फ मोबाइल और स्क्रीनशॉट। असर वही… सीधा दिल और दफ़्तर दोनों पर। हाल ही में राज्य के एक सीनियर अफसर इस आधुनिक विष के शिकार बने। पहले मुस्कानें, फिर मैंसेज, और फिर आरोपों का ऐसा तूफ़ान कि पूरी लॉबी चकरा गई। साहब ने भी पलटवार किया काउंटर शिकायत कर डाली। पर वही पत्र जो उन्होंने बचाव में लिखा था, अब उनके गले का फाँस बन गया। महकमे के गलियारों में दो चर्चाएँ हैं एक कहता है,साहब को बस एक व्हाट्सऐप दूरी रखनी थी।दूसरा हँसकर बोलता है, भला अनुभव से बड़ा अनुभव कौन देता है! कुल सार यही है कि कौटिल्य की विषकन्या हाथों से मारती थी, और आज की प्रेमकन्या स्क्रीनशॉट से। फर्क बस इतना कि तब ज़हर धीरे असर करता था, अब Send दबाते ही तांडव शुरू हो जाता है।
डांगी से आगे : –
कहते हैं, इतिहास खुद को दोहराता नहीं बस वही गलती नए नामों और नए चेहरों में लौट आती है। डांगी प्रकरण भी वही था पुराने ज़ख्म पर नई फाइल रख दी गई। इस बार कहानी का सेटअप था एक सीनियर आईपीएस, एक प्रेमकन्या, और बीच में काउंटर ब्लैकमेलिंग की चिट्ठी, जो अफसरशाही की सबसे बड़ी आत्मघाती नोट बन गई। डीजीपी को भेजा गया वही पत्र अब साहेब की गर्दन की फाँस है। महकमे में सब जानते हैं, पर बोलता कोई नहीं।
कुछ कहते हैं, साहेब ने दिल लगाया था, कानून नहीं तोड़ा। दूसरे फुसफुसाते हैं कानून तो वही टूटता है, जब दिल हदें पार करता है। मगर यह कहानी सिर्फ डांगी तक सीमित नहीं। एक कलेक्टर साहेब के हार वाले हीरो की चर्चा अब गलियों में है, और एक डीजी साहेब के मून चैट्स हर कुछ महीनों में फिर तैर उठते हैं। उस केस में महिला ने जान दी, मगर फाइल अब भी Pending है। सवाल गलती का नहीं, संस्कृति का है जहाँ कुर्सी ताकत का प्रतीक बन चुकी है, और नैतिकता ने स्थायी अवकाश ले लिया है। वहाँ डांगी प्रकरण ने बस यह साबित किया अब विषकन्या नहीं, प्रेमकन्या का युग है।
जाँच का जाल
इन सबके बीच एक विडंबना देखिए जिस राज्य में फाइलें साक्ष्य से ज़्यादा संबंधों पर चलती हैं, वहीं डांगी प्रकरण की जाँच अब उस अफसर को सौंप दी गई है जिसका नाम खुद कई पुरानी फाइलों में दर्ज है। जी हाँ, वही छाबड़ा साहेब जिनका नाम हर बड़े विवाद की फुटनोट में किसी न किसी कोने में मौजूद रहता है। महादेव सट्टा ऐप से लेकर कोल स्कैम, और बुलेटप्रूफ जैकेट की खरीद तक हर फाइल में उनका अनुभव दर्ज है। शायद इसी अनुभव के चलते सरकार ने उन्हें जाँच का ज्ञानी मान लिया। अब वही अफसर इस केस में न्याय के निर्णायक हैं यानी, कसाई को बकरे का मुकदमा सौंप दिया गया है। फैसला क्या होगा, सबको पहले से अंदाज़ा है। सवाल बस इतना है क्या यह जाँच है या बचाव? क्योंकि जब जाँच अधिकारी की कुर्सी खुद सीबीआई की छाया में कांप रही हो, तो निष्पक्षता महज़ एक सरकारी शब्द रह जाती है। डांगी केस की सच्चाई जो भी हो, पर कहीं ऐसा न हो कि जाँच करते-करते छाबड़ा साहेब खुद जाँच के घेरे में आ जाएँ।
फाइलों के फंदे और रिश्तों की रजाई : –
राजधानी के गलियारों में सर्द हवा तेज़ है। डांगी अध्याय क्या खुला , सचिवालय की कई फाइलें काँप गईं। अब जो कल तक दूसरों की फाइलें पलटते थे, वही आज अपनी पुरानी यादें छाँट रहे हैं कौन-सी कहाँ इन्वेस्ट हो गई है।फुसफुसाहट ये भी है कि तीन सीनियर आईपीएस अफसर अब अपने भावनात्मक निवेश की फाइलें फिर से तलाश रहे हैं। कभी भरोसे में किए गए कुछ सौदे अब भरोसे पर ही भारी पड़ रहे हैं। कहा जा रहा है जो संपत्ति दिल से दी गई थी, वो अब धड़कन रोकने की धमकी बन गई है। कई बंगले और फार्महाउस अब फाइलों से नहीं, रिश्तों की रजाई से घिरे हैं। साहब लोग दिन में कानून के रखवाले हैं, पर रात में सलाह के मुंतज़िर अगर ज़मीन वापस माँग ली तो मुकदमा कौन करेगा ज़मीन या ज़मीर? पुराने बाबू दबी आवाज़ में कहते हैं साहब की वर्दी सफ़ेद थी, पर इमोशनल बैलेंस शीट बहुत रंगीन निकली। अब तीनों बड़े अफसर डर में हैं कहीं पुरानी क्लोज़िंग स्टेटमेंट अब केस स्टेटमेंट न बन जाए। कहावत पुरानी है चोर ने माल छुपाया, डाकू ने खाया, अब दोनों की गर्दन फँस गई है। लोग समझ गए है कि जो कभी फाइलों पर सख़्त थे, अब अपने ही सिग्नेचर से डर रहे हैं।
सत्ता, सियासत और अफसरशाही जहाँ फाइलों से ज़्यादा फ़ीलिंग्स बहती हैं! लोरिक–चंदा से लेकर डांगी तक, किसका प्रेम कहाँ छलक पड़ा, कौन फँसा, कौन बचा… कुछ पुराने किस्से, कुछ आज की कहानी
यक्ष प्रश्न –
1 . क्या संयोग ही है कि बड़े अफसरों के दिल के अध्याय अकसर कोरबा से ही शुरू होते हैं या वहाँ की हवा में कुछ ऐसा है जो डिपार्टमेंटल नोटशीट को भी लव लेटर बना देती है?
2 . डांगी प्रकरण में कोरबा का वो कौन-सा पुराना परिचित चेहरा है, जो आजकल बचाव मोड में दिन-रात एक किए हुए है? सुना है, एसआई से डीएसपी बने जनाब अब न्याय और नज़दीकी दोनों की ड्यूटी निभा रहे हैं!
3 .अब ज़रा सोचिए ऊपर लिखें किस्से सच हैं, तो वर्तमान अफसरों के किस्से कहानी कौन-से अध्याय में लिखे जा रहे होंगे? कहीं ट्रांसफर लिस्ट के पीछे भी कोई टेंडर ऑफ़ इमोशन तो नहीं चल रहा?









