अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)
नए सीएस की एंट्री नई दिशा, नई उम्मीद
लंबे इंतज़ार के बाद आखिरकार आदेश जारी हो चुका है। 30 सितंबर को विकासशील गुप्ता मुख्य सचिव का पदभार संभालेंगे और प्रदेश को मिलेगा 13वां सीएस। विकाश शील को एक तेज़तर्रार, दूरदर्शी और चुनौतियों को अवसर में बदलने वाले अफसर के रूप में जाना जाता है। मनीला ADB से लेकर प्रदेश के अलग-अलग प्रशासनिक मोर्चों तक उनका अनुभव साबित करता है कि वे कठिन हालात में भी ठोस फैसले लेने से पीछे नहीं हटते। आज प्रदेश के सामने विकास कार्यों की गति बढ़ाने, योजनाओं को जमीन पर उतारने और शासन को पारदर्शी बनाने जैसी चुनौतियाँ हैं। उम्मीद की जा रही है कि विकाश शील का अनुभव इन मोर्चों पर नई ऊर्जा देगा और प्रशासनिक मशीनरी को दिशा देगा। उनकी एंट्री केवल पद परिवर्तन नहीं, बल्कि एक नई उम्मीद है कि प्रदेश अब बेहतर प्रशासन की ओर बढ़ेगा।
राजधानी में स्वास्थ्य गाड़ियों का बंदरबांट!
छत्तीसगढ़ स्वास्थ्य सेवा संचालनालय ने बीते महीने 142 गाड़ियाँ बांटीं ताकि स्वास्थ्य सेवाएँ सुधरें, लेकिन राजधानी में ये गाड़ियाँ इलाज से ज़्यादा निजी कामों में झोंकी जा रही हैं। सीएमएचओ कार्यालय को मिली पाँच गाड़ियों में से एक (CG02AU2578) उनकी पत्नी के निजी दौरों में लग रही है, दूसरी सरकारी आवास पर खड़ी रहती है और बाकी ऑफिस में धूल खा रही हैं। खुद साहब सरकारी गाड़ी होते हुए भी प्राइवेट गाड़ियाँ किराए पर मंगाते हैं क्योंकि वहीं से असली लेन-देन संभव है। वाहन शाखा प्रभारी दिलीप बंजारे पर पहले भी डीजल दुरुपयोग की शिकायतें हुई थीं, कार्रवाई न होने का नतीजा यह है कि आज भी गाड़ियाँ साहब के निजी कामों में दौड़ रही हैं। इतना ही नहीं, सरकारी ड्राइवरों ने विरोध किया तो अब प्राइवेट ड्राइवर रखने की वैकेंसी निकाल दी गई। यह वही अधिकारी हैं जिनका नाम संस्कारधानी में दवा और भर्ती घोटालों में गूंजा था, लेकिन हर बार मंत्री जी की छत्रछाया ने बचा लिया। अब सवाल यह है कि जिन गाड़ियों से मरीज़ों की जान बचनी थी, वे अगर साहब की रुतबा बढ़ाने और पत्नी के पीआर सँभालने में ही दौड़ेंगी तो स्वास्थ्य महकमा आखिर बचेगा कैसे?
वीआरएस के बाद वापसी का खेल!
छत्तीसगढ़ में एक अनोखा खेल सामने आया है। यहाँ केके नाग ने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति (VRS) के लिए आवेदन दिया, आवेदन स्वीकृत भी हो गया और सेवा समाप्त मानी गई। लेकिन नियमों को ताक पर रखकर, उसी अधिकारी को सामान्य प्रशासन विभाग ने दोबारा नियुक्ति दे दी और सीधे संभागीय कार्यक्रम अधिकारी की कुर्सी पर बैठा दिया गया। सवाल उठता है कि जब कोई अफसर VRS लेकर सेवा छोड़ चुका हो, तो क्या नियमों के खिलाफ उसे वापस सेवा में लाकर नई कुर्सी थमाई जा सकती है? सेवा शर्तों और प्रावधानों में इसका कोई सीधा रास्ता नहीं दिखता। लेकिन यहाँ नियम से ज़्यादा ताक़तवर है राजनीति और उसके संकेत! दरअसल, मौजूदा खेल की असली वजह यह बताई जा रही है कि वर्तमान जॉइंट डायरेक्टर एम.पी. माहेश्वर आठ महीने बाद रिटायर होने वाले हैं। उनकी कुर्सी पर पहले से ही केके नाग को बैठाने का प्रलोभन दिया गया है। यह वही अधिकारी हैं, जिन पर पहले भी जगदलपुर कार्यकाल के दौरान लेन-देन के आरोप लगते रहे। इतना ही नहीं, यह वही डाइरेक्टर हैं जिन्होंने स्वास्थ्य मंत्री को बस्तर से लाकर राम जी की प्रतिमा भेंट की थी जिसकी चर्चा आज भी महकमे में होती है। क्या छत्तीसगढ़ में सेवा नियमों से ज़्यादा महत्व व्यक्तिगत कृपा और राजनीतिक संरक्षण को है? और अगर वीआरएस लेकर भी कोई अधिकारी दोबारा नियुक्त हो सकता है, तो फिर यह व्यवस्था किसके लिए और किस नियम से चल रही है?
कवर्धा में कलेक्टर-एसपी पर गाज के आसार
प्रदेश की प्रशासनिक साख पर सवाल उठने के बाद मुख्यमंत्री सचिवालय ने कवर्धा जिले के कलेक्टर और एसपी को कड़ी फटकार लगाई है। हाल के दिनों में कानून-व्यवस्था और प्रशासनिक ढिलाई को लेकर मुख्यमंत्री स्वयं नाराज बताए जा रहे हैं। सचिवालय से जारी सख्त संदेश में कहा गया कि जनता की शिकायतों और स्थानीय स्तर पर उठ रही आवाजों को गंभीरता से नहीं लिया गया, जिससे सरकार की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा। दोनों अधिकारियों की भूमिका पर कई बिंदुओं पर सवाल उठे हैं और उच्चाधिकारियों ने उनसे जवाब तलब भी किया है। सचिवालय स्तर पर दोनों अफसरों को हटाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है और उनकी जगह नए चेहरों की नियुक्ति तय मानी जा रही है। राजनीतिक गलियारों में भी इस कदम को लेकर हलचल तेज है। स्पष्ट है कि सरकार अब प्रशासनिक लापरवाही बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। आने वाले दिनों में कवर्धा जिले में बड़ा फेरबदल देखने को मिल सकता है, जो पूरे प्रदेश के अफसरशाही के लिए संदेश होगा कि लापरवाही की कीमत कुर्सी से चुकानी पड़ेगी।
शक्ति ज़िले का CSR का खेल
शक्ति ज़िला जिसे ऊर्जा की राजधानी कहा जाता है, यहाँ दो बड़े पावर प्लांट हैं डीबी पॉवर प्लांट और आरकेएम पॉवर प्लांट। दोनों कंपनियों का मुनाफ़ा करोड़ों में है, लेकिन जब बात आती है सीएसआर खर्च की, तो तस्वीर धुंधली और सवालों से भरी नज़र आती है।
कागज़ों में लाखों-करोड़ों की योजनाएँ दर्ज होती हैं गाँवों के लिए सड़कें, स्कूलों में मदद, स्वास्थ्य शिविर, जल संरक्षण और ग्रामीण विकास। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि गाँव अब भी जर्जर हालात में हैं, सड़कें टूटी पड़ी हैं और स्वास्थ्य सेवाएँ बदहाल। स्थानीय लोग कहते हैं बिजली तो देशभर में जाती है, पर हमारे हिस्से का उजाला कहाँ है? सीएसआर का बड़ा हिस्सा चयनित संस्थाओं और दिखावटी प्रोजेक्ट्स में सिमट जाता है। रिपोर्टें चमकदार बनती हैं, अधिकारी फोटो खिंचवाते हैं और फाइलें बंद हो जाती हैं। लेकिन वास्तविक विकास वहीं का वहीं ठप पड़ा रहता है। बड़ा सवाल यही है कि क्या डीबी और आरकेएम जैसे पावर प्लांट्स का CSR महज़ कॉर्पोरेट विज्ञापन का बजट बन गया है? और अगर मुनाफ़े के अनुपात में ज़िले को हक़ नहीं मिल रहा, तो शक्ति ज़िला कब तक सिर्फ ऊर्जा की राजधानी कहलाने की कीमत चुकाता रहेगा?
तो जनाब, हफ़्ते भर की अफसरशाही का हाल यही है कहीं नई उम्मीदों की एंट्री है, तो कहीं गाड़ियों और कुर्सियों का बंदरबांट। कोई वीआरएस लेकर भी वापसी कर रहा है, तो कोई प्रतिमा भेंट कर नियमों को मात दे रहा है। कवर्धा में कुर्सियाँ हिल रही हैं और शक्ति ज़िला अब भी अंधेरे में है। सवाल बस इतना है कि प्रदेश की जनता कब तक इस अफसरशाही की बाज़ीगरी देखेगी और अफसर-ए-आ’ला कब तक नोटबुक में इन करतूतों का हिसाब लिखता रहेगा?
यक्ष प्रश्न –
1 . प्रदेश में मुखिया की ताजपोशी में भारत के किस व्यापारी घराने की छाया रही?
2 . क्या पुलिस के मुखिया की गद्दी भी अब उसी व्यापारी घराने के इशारे पर सजने वाली है?








