अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

कुर्सी का रंग-रोहन और मंत्रालय का गणित – 
रायपुर दरबार में इस महीने के आखिर में फिर एक बड़ा मंजर तय माना जा रहा है। जी हाँ, सीएस हाउस सेक्टर-18 में झाड़ू-पोंछा, पुताई-रंगाई और पर्दे धोने का सिलसिला चालू हो चुका है। मतलब इशारा साफ है सीएस की कुर्सी खाली होने वाली है और नए खिलाड़ी की एंट्री अब बस औपचारिकता भर है। अब सवाल वही पुराना कौन बनेगा अगला सीएस? दरबारी गलियारों में नामों का पटाखा फूट रहा है। एडीबी से लौट रहे विकास शील साहब और उनकी धर्मपत्नी निधि छिब्बर की वापसी ने तो कहानी में नया ट्विस्ट डाल दिया है। विकास शील को कुर्सी मिले तो उनसे ऊपर बैठे रेणु पिल्ले, सुब्रत साहू और ऋचा शर्मा जैसे वरिष्ठों को किनारे लगाना होगा। और उधर निधि छिब्बर भी 94 बैच की हैं, मतलब शील साहब से सीनियर अब मंत्रालय का गणित और गड़बड़ा गया! इसलिए एक नया फॉर्मूला निकाला जा रहा है। शील साहब को एसीएस टू सीएम बना दिया जाए, ताकि मंत्रालय में सीनियरिटी का राग बेसुरा न हो और बाहर की दो चमकदार कुर्सियाँ (जो सीएस के बराबर मानी जाती हैं) सीनियर अफसरों के लिए खाली रहें। दरबारियों को लगता है कि यह कयास इसलिए और वजनदार हैं क्योंकि मौजूदा सीएस साहब के कार्यकाल ने सरकार की छवि पर खासा बोझ डाला है।बिजली बिल हाफ योजना खत्म कर बिल बढ़ा देना यह फैसला ऐसा निकला कि न जनता खुश हुई, न संगठन। संघ और संगठन दोनों की भौंहें तनी हुई हैं।लिहाजा दरबार में यह फुसफुसाहट है।अगर नए सीएस की एंट्री हुई तो वो न सिर्फ़ अफसर होगा, बल्कि सरकार की साख बचाने का ब्रांड एम्बेसडर भी होना चाहिए।मतलब साफ है सीएस की कुर्सी सिर्फ़ फाइल और नोटिंग की नहीं, अब सियासत और इमेज बिल्डिंग का भी खेल बन चुकी है। और जहां खेल हो, वहां कयास भी होंगे, अफवाहें भी और… रंग-रोहन भी!

प्रभारी की कुर्सी और दिल्ली दरबार का फ़ैसला –
रायपुर दरबार में इस हफ्ते सिर्फ़ सीएस की कुर्सी ही चर्चा में नहीं है, निगाहें अब डीजीपी की कुर्सी पर भी गड़ी हुई हैं। लंबे समय से प्रभारी टाइटल लेकर बैठे साहब को क्या अब फूल-फ्लैश कुर्सी मिलेगी? और अगर मिलेगी तो तय कौन करेगा मुखिया, गृहमंत्री या फिर सीधे दिल्ली दरबार? प्रभारी साहब 5 फरवरी से विराजमान हैं। कागज़ों में काम ठीक-ठाक, मगर असली सवाल यह है कि क्या उनका कार्यकाल संतोषजनक माना जाएगा।भीतरखाने से छनकर आ रही आवाज़ कहती है। न हाउस सीधे निर्देश देता है, न गृह मंत्री साहेब सीधे बोलते हैं, न ही पूर्व मुखिया ने कभी डारेक्ट फ़ोन मिलाया। मतलब साहब की स्थिति वैसी ही है जैसे बारात में एक बराती जिसे कोई पूछता तो है, पर असली नाच गाना बिना बताए ही शुरू हो जाता है। सूत्रों का कहना है, अगर सरकार या गृह विभाग को डीजीपी से कुछ कहना होता है तो वह बात भी पीएचक्यू के नंबर दो अधिकारी तक पहुँचाई जाती है। प्रभारी साहब तक सीधी डोर बंधी ही नहीं है। अब इसे असंतोष कहें या बैकअप प्लान, पर हक़ीक़त यही है कि कुर्सी पर टिके रहने की गारंटी फिलहाल हवा में झूल रही है। दरबारियों का सवाल साफ़ है क्या प्रभारी साहब आगे कंटीन्यू करेंगे, या दिल्ली से नया पैकेट खुलेगा?क्योंकि इस कुर्सी का फ़ैसला न हाउस अकेले ले सकता है, न गृहमंत्री की दलीलों से ठहरता है। आख़िरकार रबर-स्टैम्प वहीं लगेगा जहाँ से हमेशा लगता आया है। मतलब ये कि डीजीपी की कुर्सी भी अब वही पुराना खेल बन गई है।बजेगा ड्रम, पर ढोल किसके हाथ में होगा, ये कोई नहीं जानता।

शान का संग्रहालय या ठेके का खेल?
नवा रायपुर के सेक्टर-24 में धरती की शान शहीद वीर नारायण सिंह आदिवासी एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संग्रहालय बन रहा है। नाम सुनते ही गर्व होना चाहिए, लेकिन हालात ऐसे हैं कि गर्व से ज़्यादा सवाल खड़े हो रहे हैं। यह वही प्रोजेक्ट है जो 2018 में प्रधानमंत्री जी की प्रेरणा से शुरू हुआ था। शुरुआत हुई थी 15 करोड़ से। पर छत्तीसगढ़ की ठेकेदारी की परंपरा कहती है कभी भी 15 पर मत रुकना, सीधे 45 करो और फिर 50 तक पहुँच जाना। हुआ भी वही। कोरबा की J P कंस्ट्रक्शन नामक फर्म को मूल काम 15 करोड़ का मिला। समय बीता, काम बढ़ा और जादू ऐसा हुआ कि बिना नया टेंडर निकाले वही काम 45 करोड़ का हो गया। और हाल ही में, उसी प्रोजेक्ट में 5.5 करोड़ का डिजिटल पैकेज भी चुपचाप जोड़ दिया गया वह भी बिना टेंडर के।

मॉनिटरिंग का कमाल
अब आगे सुनिए प्रोजेक्ट की निगरानी कर रहे इंजीनियर और अफसर खुद ही चर्चा में हैं। ईई चक्रवर्ती, सब-इंजीनियर यशवंत राव और ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट की ज्वाइंट डायरेक्टर गायत्री नेताम। इनकी देखरेख में प्रोजेक्ट की राशि 15 करोड़ से सीधे 50 करोड़ पहुँच गई। अब सवाल यह नहीं है कि यह कैसे बढ़ी सवाल यह है कि इतनी तेजी अगर संग्रहालय की दीवारें बनाने में लगी होती, तो उद्घाटन की तारीखें अब तक बदलती क्यों? दरबार के गलियारों में चर्चा है कि मॉनिटरिंग से ज़्यादा यहाँ मैनेजमेंट का खेल चल रहा है।

मूर्तिकारों का रहस्य
इतना ही नही सिविल ठेकेदार को न सिर्फ़ इमारत बनाने का काम दिया गया, बल्कि मूर्ति निर्माण का काम भी सौंप दिया गया। अब जो ठेकेदार ईंट-सीमेंट का जानकार है, वही मूर्तिकारों को तय कर रहा है और उनकी मेहनताना भी अपनी मर्जी से बाँट रहा है। बताया जा रहा है कि इस 17 करोड़ के भुगतान में ही सबसे बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। ठेकेदार पर ऊपर से दबाव, नीचे से वसूली और बीच में मूर्तिकार तीनों की पिसाई का पूरा खेल। और आखिर में… ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट की ज्वाइंट डायरेक्टर गायत्री नेताम का नाम पहले ही पुराने राजनीतिक कुनबे और भ्रष्टाचार के आरोपों से जुड़ा रहा है। अब इस प्रोजेक्ट ने उनकी छवि पर और रंग चढ़ा दिया है। क्या यह संग्रहालय शहीद वीर नारायण सिंह की शान का प्रतीक बनेगा या अफसरशाही-ठेकेदारी का स्मारक? उद्घाटन तो रजत जयंती वर्ष में हो ही जाएगा, पर जनता के मन में यह सवाल गूंजता रहेगा कि इतिहास का सम्मान हो रहा है या ठेकों का खेल चल रहा है।

मुँह ढका चेहरा और खुला सच
रायपुर की एक शाम। वही पुरानी इमारत, जहाँ कभी बड़े साहबान की गाड़ियाँ रुकती थीं, जहां के कमरों में एसडीएम और एडीएम जैसे ओहदेदार रहते थे। वही इमारत अब एक नए नज़ारे की गवाह बनी। इस बार न लाल-पीली बत्ती थी, न मुलाक़ातियों की भीड़। बल्कि पाँच चेहरे थे, जो दुपट्टे और मास्क के पीछे से भी पहचाने जाने की जद्दोजहद कर रहे थे। मानो किसी कालगर्ल या दलाल पर कार्रवाई हुई हो लेकिन ये वही लोग थे जिनकी कुर्सियों से कभी फरमान निकलते थे। यह तस्वीर महज़ पाँच लोगों की नहीं है, यह पूरे तंत्र की उजली से स्याह होती परतों का आईना है। जिस आयोग को मेरिट का मंदिर कहा जाता था, वही मैनेजमेंट का बाजार बन बैठा। और अब नतीजा यह कि जिन कुर्सियों पर कभी फैसले होते थे, वही लोग आज गिरफ्तारी की लाइन में खड़े हैं। सीबीआई की यह कार्रवाई सिर्फ़ आरोपियों पर शिकंजा नहीं है, बल्कि उस सिस्टम पर तमाचा है जिसने वर्षों तक चुपचाप आँख मूँद ली। सवाल यह भी है कि कल तक जिन गलियारों से प्रशासन चलता था, वही अब अदालतों के रास्ते तक क्यों पहुँच रहे हैं? चेहरा ढककर बैठना शर्म छुपाना नहीं है, सच को ढंकने की कोशिश है। और सच यह है कि छत्तीसगढ़ पब्लिक सर्विस कमीशन का नाम अब उन उम्मीदवारों की मेहनत से नहीं, बल्कि इन गिरफ़्तारियों से ज़्यादा चर्चा में है। इतिहास लिखेगा कभी यहाँ आदेश लिखे जाते थे, और आज वही दीवारें गवाह हैं गिरफ़्तारियों की।

रंग-रोहन से लेकर गिरफ्तारी तक, ठेकों के खेल से लेकर कुर्सियों की गणित तक छत्तीसगढ़ की नौकरशाही का चेहरा इस हफ्ते फिर उजला भी दिखा, स्याह भी। सवाल वही हैक्या सिस्टम को नया चेहरा मिलेगा, या सिर्फ़ नया पर्दा बदला जाएगा?

यक्ष प्रश्न

1 – हाउस के दो ऐसे कौन से आला अफसर हैं जिनकी लड़ाई जगजाहिर हो चुकी है ?

2 – इसमें खबर में कितनी सच्चाई है कि एक आई.पी.एस. और आई.ए.एस. दंपत्ति से पिछले हफ्ते केंद्रीय जांच एजेंसीज ने जमकर पूछताछ की है ?

 

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