अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

भाई से मून तक!
छत्तीसगढ़ की नौकरशाही के किस्से कभी-कभी फाइलों से निकलकर सीधे चैट बॉक्स में कूद पड़ते हैं। बस्तर इलाके में पदस्थ रहे एक साहब को कभी राखी बाँधने वाली बहू जी ने भाई माना था। लेकिन वक्त बदला, और उसी राखी का धागा कब मून गुप्ता बन गया, किसी को खबर नहीं लगी। घर में क्लेश बढ़ा, थाने में दहेज प्रताड़ना की शिकायत पहुँची, और फिर कंप्यूटर से निकली चैट , डीपी में कार्टून, नाम मून गुप्ता , और इश्क़ की लहराती बातें। जब जाँच हुई तो खुलासा हुआ कि साहब ही मून अवतार लेकर बहन को मोहब्बत का पाठ पढ़ा रहे थे। अब राजधानी की गलियों में ठिठोली यही है कि कुर्सी चाहे आईजी दफ़्तर की हो, या दिल का सर्वर , मून चैटिंग रूम ही निकलता है। भाई से मून तक का सफ़र सच में, रिश्तों का ऐसा अपग्रेड सिर्फ अफसर ए आला की डायरी में ही दर्ज हो सकता है!

झूमर की चमक
बीते दिनों झूमर की चमक और विधानसभा की फाइलों से निकली खबर ने सबको चौंकाया। मंत्री साहब के दफ़्तर में 13 करोड़ 89 लाख का झूमर टंग गया। बजट की किताब जब खुली तो दो सड़कों का रास्ता बंद हो गया और एक झूमर का रास्ता खुल गया। कागज़ों में इसे लिपिकीय गलती कहा गया, लेकिन राजधानी के लोग मज़ाक में पूछ रहे हैं भाई, पाँच करोड़ में दो सड़क बनती या साहब का झूमर आ जाता! विपक्ष के तीर सीधे दफ़्तर पर चले और जनता की हँसी भी वहीं अटक गई। सवाल ये कि जब मोहल्ले अँधेरे में हैं तो दफ़्तर को इतनी रोशनी क्यों चाहिए? राजधानी में ठिठोली ये भी है कि जनता की जेब से निकली रकम अगर साहब के झूमर में लटकी है, तो इसे बजट नहीं, शाही ठाट कहा जाना चाहिए। कुर्सी के गलियारों में अब ये नया जुमला चल पड़ा है जिसके पास ताजपोशी का सपना है, उसके पास झूमर भी होना चाहिए।

कुर्सी का ऊँट
राज्य सचिवालय के गलियारों में इन दिनों सबसे बड़ी फुसफुसाहट यही है अबकी बार किस बैच की चलेगी? मौजूदा साहब की विदाई का कैलेंडर दीवार पर टंगा है, और अगली ताजपोशी की दौड़ पूरे शबाब पर है। जहाँ 1990 और 2005 बैच की खींचतान खुलकर सामने है। कोई अपनी नज़दीकियों का सिक्का चमका रहा है, तो कोई साफ़ छवि की ढाल थामे खड़ा है। मसौदा नया नहीं, लेकिन हर बार का यही किस्सा है कुर्सी बदलते ही अफसरों की आत्मकथा भी बदल जाती है। इसी बीच एक नया मोड़। शासन ने एशियन डेवलपमेंट बैंक को पत्र लिख डाला कि विकास शील को इसी महीने रिलीव किया जाए, जबकि उनका आधिकारिक टेन्योर 2027 तक का बताया जाता है। सियासी सुगबुगाहट है कि एक बैच विशेष चाहता है कि वरिष्ठ अफसर किनारे हो जाए, और पालकी पर नए लोग सवार किये जायें। सीनियरिटी अब फाइलों में अटकी है, और बैच की बिरादरी कुर्सी की अगली दिशा तय करने में। जनता बिजली-पानी-सड़क के जंजाल में उलझी है, मगर सचिवालय का ऊँट अब भी कुर्सी की करवट पर अटका है।

मंत्री जी और लैब टेक्नीशियन गठजोड़ –
उत्तर छत्तीसगढ़ में तीन नामो का एक जिला है।जहाँ एक लैब टेक्नीशियन है जो स्वास्थ्य महकमे के सीईओ इन शैडो कहे जाते हैं। कहते हैं, जब कोरोना ने देश को घरों में बंद किया था, उसी दौरान यह नया जिला खुला और बजट भी आया। मौका और दस्तूर दोनों तैयार थे, फिर क्या था आपदा को अवसर की नई परिभाषा गढ़ दी गई। उस समय के सीएमएचओ साहब अब सिविल सर्जन हैं और करोड़ों के मालिक भी। पर असली खेल के मास्टर तो यही लैब वाले निकले। आज हालत यह है कि विभागीय मंत्री से लेकर ज़िला कलेक्टर तक सब इनके आगे नतमस्तक शिष्य नज़र आते हैं। स्वास्थ्य भवन के गलियारों में कानाफूसी है कि लैब टेक्नीशियन ने अपनी रिपोर्टिंग मशीन से ज़्यादा रसूख की कर ली है। लेखा, क्रय, स्टोर, नोडल हर जगह यही साहब। बाकी डॉक्टर-महोदय तो बस नाम के अधिकारी हैं, हकीकत में जिला चला रहे हैं लैब के लाला। संभागीय दफ्तर ने शिकायत पर आदेश भी निकाल दिया कि भाई, इन्हें मूल काम पर लौटाओ। लेकिन आदेश को दो महीने हो गए, और कलेक्टर मैडम कहती हैं मैं तो लेटर ढूँढ़ रही हूँ। उधर सीएमएचओ साहब का बयान और भी शानदार मामला गंभीर है, फोन पर नहीं बता सकते।मंत्री जी का हाल और भी निराला कभी कुछ कहेंगे ही नहीं, ताकि रसूख पर आँच न आए। जब लैब टेक्नीशियन जिले का हेल्थ मिनिस्टर हो सकता है, तो फिर मंत्री जी सिर्फ़ फोटो खिंचवाने के लिए और कलेक्टर मैडम आदेश खोने के लिए ही रह जाते है।

मेंटल हॉस्पिटल वर्कऑर्डर जारी, बजट सो रहा
सरगुजा में दो साल पहले मेंटल हॉस्पिटल बनाने की घोषणा हुई थी। सीजीएमएससी ने वर्कऑर्डर पांच महीने पहले जारी कर दिया। टेंडर फर्म भी तैयार थी। लेकिन बजट की नींद के कारण काम अब तक ठहरा हुआ है। मतलब बिना बजट स्वीकृति के वर्कऑर्डर दे दिया गया। हालात यह है कि मेडिकल कॉलेज और नवापारा सीएचसी में मानसिक रोगियों के लिए केवल ओपीडी ही है। गंभीर मरीजों की भर्ती, काउंसलिंग होना दूर की कौड़ी है। मरीजों की संख्या बोलती है सालाना लगभग 6000 मरीज आते है। इसी के लिए भवन के लिए 8.55 करोड़ का इस्टीमेट दिया गया और 5 एकड़ जमीन, वर्कऑर्डर भी जारी। लेकिन बजट नहीं, और मरीज इंतजार में है। यही है अफसरों की प्रक्रिया पूरी वाली कला। संदेश साफ़ है वर्कऑर्डर दे दो, काम होना नहीं है। बजट बिना काम ठहरा रहेगा और हॉस्पिटल सिर्फ कागजों में बन जायेगा। और हाँ, अफसरों की तारीफ के पुलिंदे तैयार, मीडिया की रिपोर्ट में चमक, मरीजों का इंतजार जारी। मरीज जब हॉस्पिटल की दीवारें देखेंगे, तब भी सिर्फ कागजों की दीवारों पर हाथ फेरेंगे। यही है हमारी सरकारी प्रक्रिया का सच कागज पर हॉस्पिटल, जमीन पर इंतजार, और अफसरों की वाहवाही।

वर्कऑर्डर तो जारी, बजट सो रहा, और जनता इंतजार में। यही है अफसर ए आला कागजों में हॉस्पिटल, कुर्सी पर रसूख, और जनता की आँखों में सवाल।

यक्ष प्रश्न

1 – पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन वन मंत्री को मंत्रिमंडल का कौन सदस्य प्रोटेक्ट(संरक्षण) कर रहा है?

2 – राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए कौन जिम्मेदार है?

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