अफ़सर-ए-आ’ला (हर रविवार को सुशांत की कलम से)

अफ़सर-ए-आ’ला
(हर रविवार को सुशांत की कलम से)

भाग्यशाली मुखिया और बेबस पदाधिकारी-
बीते दिनों राजधानी की गलियों में एक खबर ने खूब कानाफूसी कराई। मामला था कुछ पदाधिकारियों और एक निगमाध्यक्ष का, जो सूबे के मुखिया से मिलने पहुँचे थे। मुद्दा था बीज और खाद को लेकर। लेकिन वहां जो सुनाई पड़ा, उसने पदाधिकारियों के होश उड़ा दिए। मुखिया ने दो टूक कह दिया न जनता ने मुझे जिताया, न पदाधिकारियों के बल पर मैं यहाँ बैठा हूँ। यह सब मेरा भाग्य है। और वैसे भी मुखिया किसी पार्टी का नहीं, सरकार का हिस्सा होता है। अब सोचिए, पदाधिकारियों की हालत! चेहरे के रंग उड़ गए, दबी जबान से कहने लगे अगर जनता को सीधे मुखिया चुनने का हक होता, तो क्या ऐसा मुखिया चुनती? उधर विपक्ष तो पहले ही कहता फिर रहा है कि यह रिमोट कंट्रोल की सरकार है। सवाल सिर्फ इतना है कि रिमोट आखिर किसके हाथ में है? दिल्ली के हाथ में होता तो मुखिया ऐसी भाषा बोलते? भाग्य और मेहनत का मेल बैठाना मुश्किल हो गया है। पार्टी के भीतर भी यह समझ आ रहा है कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो जनता का आक्रोश बढ़ेगा और मेहनत करने वाले किनारे होते जाएँगे। भाग्यशाली मुखिया के भरोसे शासन चलता रहा तो शायद संगठन की मेहनत सिर्फ़ धूल फाँकती रह जाएगी। इसी बीच, एक और घटना ने मसाले में तड़का लगा दिया। भरे मंच से नेता प्रतिपक्ष ने अपने ही कार्यकर्ताओं को चमचा कह दिया। अब इससे विपक्षी तो क्या, खुद कांग्रेस के कार्यकर्ता तक नाराज़ हो गए। भाजपा पदाधिकारी इसी पर चुटकी ले ही रहे थे कि तभी ऊपर बताई गई भाग्य वाली घटना हो गई। मतलब साफ है विपक्ष खुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहा है और सत्ता में बैठे लोग भाग्य के भरोसे कुर्सी सम्भाल रहे हैं। बीच में बेबस खड़े पदाधिकारी सोच रहे हैं कि न दिल्ली का इशारा काम आ रहा है, न मेहनत करने वालों की मेहनत दिख रही है। भाजपा में संगठन और सरकार के बीच खाई है। अफसर ए आला भाग्यशाली मुखिया की आड़ में मनमानी कर रहे हैं। और विपक्ष खुद अपनी फजीहत कर रहा है।

दफ्तर या अखाड़ा राजनीति का नया तमाशा-
प्रदेश की सियासत अब उस मोड़ पर पहुँच चुकी है जहाँ पार्टी कार्यालय जो कभी कार्यकर्ताओं के लिए मंदिर समान माने जाते थे।आज मीम बन चुके हैं। एक ओर सत्ता पक्ष का डिजिटल शौर्य देखिए राजीव भवन का नाम बदलकर चमचा भवन रख दिया। मानो कार्यकर्ता अब विचारधारा से नहीं, चम्मच से तौले जाएँ। दूसरी तरफ़ विपक्ष की सोशल मीडिया सेना खड़ी है उन्होंने पलटवार किया और भाजपा कार्यालय को नमक हराम भवन ठहरा दिया। यानी समर्पण और सेवा की पहचान अब नमक और गद्दारी की तराज़ू में तोली जा रही है। सवाल है कि क्या यही राजनीति का भविष्य है? क्या यही कार्यालय हैं जिनसे जनता को नेतृत्व, दिशा और विश्वास मिलना चाहिए? या फिर यही वे चौखटें हैं, जिनकी इज्ज़त नेताओं ने सोशल मीडिया की मंडी में बोली लगाकर बेच डाली है? दोनों ही राष्ट्रीय दल जिन्होंने देश को कभी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, और निर्णायक नेतृत्व दिया आज छत्तीसगढ़ में अपने ही दफ्तरों की इज्ज़त का चुन्नट बना रहे हैं। मान, मर्यादा और संस्कार की चादर को दोनों तरफ़ से खींचकर ऐसे फाड़ा जा रहा है कि न बचा सम्मान, न बची आबरू। और जनता देख रही है कि अस्पतालों में इलाज की कमी है, किसानों के लिए समर्थन मूल्य पर सवाल हैं, युवाओं के रोजगार की कतारें लंबी हो रही हैं, मगर नेताओं का सुख यहाँ है तेरा दफ्तर चमचा, मेरा दफ्तर नमक हराम।राजनीति का यह स्तर कि अपने ही कार्यालयों को अपमानित कर रहे हो, तो मंदिर-मस्जिद क्यों बचेंगे? जब खुद की चौखट की इज्ज़त बाजार में नीलाम कर दी, तो जनता के घर का क्या सम्मान करोगे?

एनआरडीए का ज़मीन-खेल – 
प्रदेश की राजनीति और नौकरशाही का पुराना समीकरण है ज़मीन ही सोना है। और जब सोना खनन में नहीं, कागज़ी फाइलों में निकले तो समझिए गाड़ी तेज़ भाग रही है। बीते दिनों राजधानी की एनआरडीए जमीन पर एक बड़ा खेल हुआ। सूत्र बताते हैं कि प्रदेश के एक युवा, पढ़े-लिखे और अफसरशाही को करीब से जानने वाले मंत्री जी ने ही इस गोट को फिट किया। उनका साथ मिला एक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष के व्यापारी बेटे को। फिर क्या था। सरकारी ज़मीन का सौदा हुआ और पैसा खजाने में नहीं, जेबो में भरा गया। अब खेल सुनिए ज़मीन की सरकारी कीमत बैठाई गई 270 करोड़ रुपए। वही ज़मीन व्यापारियों को चढ़ाई गई 410 करोड़ रुपए में। और सौदे को तोड़ा गया छोटे-छोटे टुकड़ों में 5-5 हज़ार स्क्वायर फीट के प्लॉट्स में। महज़ एक हफ़्ते में यह ताश का महल खड़ा हुआ और मोटा मुनाफ़ा जेब में उतर आया। गणित कहता है कि इस पूरे खेल से 130 से 140 करोड़ रुपए का सीधा फायदा हुआ। लेकिन यह तो बस पहली परत है। ऊपर से प्रति एकड़ 1 करोड़ रुपए का कमीशन भी लिया गया। यानी, सौदा सरकारी, कमाई निजी। अच्छा कही एनआरडीए फूल फॉर्म बदलकर नोट रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी तो नही हो गया है?

जंगल का ताज और चढ़ावे का राज –
जंगल की दुनिया में इन दिनों बड़ा हलचल है। दो सीनियर पहरेदार अपनी पारी पूरी कर चुके अब कंधे पर से पट्टी उतर गई। सोचा जा रहा था कि अब तो कुर्सी पर नई रोशनी पड़ेगी, लेकिन हुआ उल्टा। वही पुराना खिलाड़ी अब भी ताज पहने बैठा है। कहते हैं, इस दरबार की कुर्सी नियम से नहीं, चढ़ावे से चलती है। कभी सात को सुपरसीट कर, कभी सौ नियमों को ताक पर रख कर और फिर भी सालों से वही चेहरा, वही हंसी और वही खेल! लोग कहते हैं, बीते राज में इस खिलाड़ी ने घोटाले से साम्राज्य खड़ा किया, और अब उसी साम्राज्य की मुहरों से नए राज में मंत्रियों को साध लिया है। सत्ता चाहे पुरानी हो या नई चढ़ावे का रंग हमेशा चमकदार निकला। याद करने वाले याद करते हैं कि कैसे कल तक यह खिलाड़ी एक पुराने जंगल मंत्री की गोद में खेलता था, और आज वही भाजपा के दरबार का तारा बना बैठा है। सरकार बदलते ही दस करोड़ का फूल चढ़ाया, और कुर्सी वहीँ की वहीँ! शिकायत उठी तो एक और चढ़ावा चढ़ा दिया। और जब सुना कि दो बड़े अफसर रिटायर होने वाले हैं, तो पहले ही पूजा-पाठ कर 10 करोड़ चढ़ा दिया। ताकि कुर्सी डगमग न हो जाये। बाजार में चर्चा है कि दक्षिण के एक बड़े संगठित साधक तक इसकी डोर जा चुकी है। अब राज्य के छोटे मंत्री चाहे कुछ भी सोचें, इस जंगल साम्राज्य की चाभी उसी अफसर के हाथ में है, जिसे सब जंगल माफिया कहकर हंसते भी हैं और डरते भी।कुर्सी के इस खेल में सबसे बड़ा सबक यही है जंगल का कानून तो जानवरों पर चलता है, लेकिन असली जंगल तो सचिवालय की गलियों में बसा है।

जूते की भाषा और मंत्री की रसोई –
जगदलपुर के सर्किट हाउस में इन दिनों खाना कम, तमाशा ज़्यादा पक रहा है। ज़िम्मेदारी संभालने वाले जनसेवक साहब का मिजाज ऐसा गरम हुआ कि कढ़ाई चढ़ी रही और कर्मचारियों पर जूते की बरसात हो गई। अब सोचिए, जिन्हें जनता ने सेवा का जिम्मा सौंपा है, वे जनता के ही सेवक को जूते से सेवा देने लगें, तो फिर लोकतंत्र का स्वाद कैसा होगा? ऊपर से गाली-गलौज और आपत्तिजनक शब्दों का तड़का मानो रसोई की भाजी में लाल मिर्च जरा ज्यादा पड़ गई हो। असल सवाल यह है कि रसोई के कर्मचारी का कसूर क्या था? दाल में नमक कम था या साहब के अहंकार में मिर्च ज्यादा? नेता जी को शायद यह भ्रम है कि कुर्सी के साथ जूता वारंटी भी मिलती है। मजेदार तो यह है कि यह सब हुआ सर्किट हाउस में,कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि मंत्री जी का गुस्सा दरअसल उस जंगल महकमे के बड़े बाबू पर निकलना था, जिनके घोटालों की कहानियाँ पूरा बस्तर सुनता है। लेकिन हिम्मत वहाँ दिखती नहीं, तो खीझ बेचारे रसोइये पर ही निकल गई। और हाँ, याद दिलाना जरूरी है यह वही घराना है जिसकी जड़ें कभी बस्तर की राजनीति में गहरी थीं। पर अफसोस, आज विरासत से मिले रसूख का इस्तेमाल विकास में नहीं, बल्कि जूते की राजनीति में हो रहा है। जूते की भाषा में राजनीति करने वालों को लोकतंत्र की भाषा में जवाब मिलना ही चाहिए। आखिर याद रखिए जूता हवा में घूमता जरूर है, लेकिन लौटकर वहीं पड़ता है, जहां से निकला था।

त्योहारों का सरकारीकरण –  
राजनीति में त्योहार अब सिर्फ खुशियों का माध्यम नहीं रह गए, बल्कि सरकारीकरण की महामारी बन गए हैं। पूरा का पूरा सरकारी महकमा साल भर अपने मूल काम को किनारे रखकर ऐसे आयोजनों में जुट जाता है, जिनका कोई वास्तविक औचित्य जनता को दिखाई नहीं देता। लीजिए, तीजा पोरा जैसे निजी और पारंपरिक त्योहार को ही सरकारीकरण का शिकार बना दिया गया। और हां, यह मामला सिर्फ औपचारिक नहीं है प्रतिस्पर्धा भी शुरू हो गई। एक तरफ मुखिया सहपत्नी जापान -कोरिया में दौरे पर थे। वहीं राज्यभर में मंत्रियों के बंगले से लेकर विधानसभा क्षेत्रों तक तीन-तीन बड़े आयोजन हुए जहाँ करोड़ों की साड़ियां बंटवाई गई। आयोजन का तामझाम, महिला मोर्चा की स्वयंभू दिग्गजों में साड़ियों को लेकर आंतरिक तनाव सब मिलकर एक रंगीन लेकिन व्यर्थ तमाशा बना। किसे समझाएँ कि वोट तीज-त्योहार से नहीं मिलता, बल्कि कामकाज और वादों पर खरा उतरने से मिलता है। पोरा तीजा, गेड़ी, महिला मड़ई, नुआखाई सब छोड़िए, विकास की खाई पाटिए भाई! और सोचना पड़े तो आगे श्राद्ध है। कहीं ऐसा न हो कि सरकार इसे भी सरकारी कारण बना दे और कहे कि तर्पण अब सरकारी बजट से होगा। यह हालात तब हैं जब स्कूलों की छत टपक रही है, महतारी वंदन का पैसा किसी फिल्मी सितारे के लिए जा रहा है, वित्त मंत्री बजट की दुहाई दे रहे हैं, बेरोज़गार रोजगार मांग रहे हैं, अपराध अपने अंतिम चरण में है। और इन सबके बीच सरकारी बजट का यह व्यर्थ दुरुपयोग क्यों? सवाल यह भी है कि ये साड़ियां आखिर मिली किसको सिर्फ़ कार्यकर्ताओं को या आम महिला को? तो भाई, विकास और प्रशासन का मोल तो भूल जाइए, अब साड़ी, तीज और सरकारी उत्सव ही महत्वपूर्ण हो गए हैं। और जनता? बस चुपचाप इस तमाशे को देख रही है क्योंकि कामकाज की खाई, सरकारी साड़ी के रंग में खो गई है।

नो वर्क, नो ट्रीटमेंट –
छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवाएँ इस समय ICU में हैं। 16,000 से ज्यादा NHM कर्मचारी काम छोड़कर सड़क पर हैं। मरीज लाइन में लगे हैं। दवाइयाँ आधी अधूरी हैं, लेकिन सरकार ने ऐलान कर दिया नो वर्क, नो पे। जनता सोच रही है नो वर्क, नो ट्रीटमेंट और शायद आगे चलकर नो ट्रीटमेंट, नो गवर्नमेंट भी! अब देखिए, हालात कहाँ तक बिगड़े हैं 25 कर्मचारियों की सीधी बर्खास्तगी। अस्पतालों में अफरा-तफरी, मरीज बेबस, लेकिन सरकार मौन और स्वास्थ्य भाग्य भरोसे। और इस पूरे तमाशे में सबसे दिलचस्प किरदार हैं हमारे स्वास्थ्य मंत्री। जनता ढूंढ रही है कि मंत्री जी का बयान कहाँ है? लेकिन मंत्री जी मौन साधे हुए हैं। नो स्पीक, नो क्रिटिसिज़्म नो रिस्पॉन्स, नो रिस्पॉन्सिबिलिटी।अंदाज़ा लगाइए, पूरे प्रदेश से खबरें आ रही हैं कहीं प्रसव के लिए महिला स्ट्रेचर पर बिना डॉक्टर के पड़ी है, कहीं इंजेक्शन न मिलने से मरीज तड़प रहा है, कहीं ड्यूटी पर मौजूद अफसर खुद कह रहे हैं हम क्या करें? लेकिन मंत्री जी अभी भी कैमरे के पीछे हैं। जनता सोच रही कि मंत्री जी की खामोशी शायद नई स्वास्थ्य नीति है, जिसमें इलाज से ज्यादा शांति पर जोर दिया जा रहा है। कुल मिलाकर, सरकार कह रही है नो वर्क, नो पे जनता कह रही है नो वर्क, नो ट्रीटमेंट और मंत्री जी कह रहे हैं नो कमेंट, नो प्रॉब्लम

अफ़सर-ए-आ’ला कहते हैं कि इस प्रदेश में किस्मत की कुर्सियाँ, चढ़ावे की तिजोरियाँ और त्योहारों की साड़ियाँ सब कुछ हैं बस कामकाज और जवाबदेही नदारद है। सत्ता भाग्य पर टिकी है, अफसर चढ़ावे पर और जनता? बस तमाशा देख रही है।

यक्ष प्रश्न

1 . – क्या अरुण का आशन पवन उड़ा ले जाएगा,या हिम की चादर आच्छादित होगा ? 

2 . – अगर आज चुनाव हो तो सत्ता धारी पार्टी की सीट की संख्या क्या होगी ?

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